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________________ राजै.शा. द्वादम. ॥२८॥ पम्यम् । घटादयो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टाः । अशरीरस्य च सतस्तत्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यमा- काशादिवत् । तस्मात्सशरीराशरीरलक्षणे पक्षद्वयेऽपि कार्यत्वहेतोप्प्यसिद्धिः। | अब यदि कहो कि, हमारे मन्दभाग्यसे ईश्वरका शरीर हमको नहीं दीखता है, तो यह कहना हमारे विचारम ही नहीं आता है। क्योंकि, क्या ? जैसे बन्ध्याके पुत्रका अभाव है, उसप्रकार ईश्वरके गरीरका ही अभाव है, जिनसे, कि. उसका शरीर देखने नहीं आता है अथवा क्या? हमारे मंढभाग्यसे जैसे हमको पिशाच आदिका शरीर नहीं देख पड़ता है, उसीप्रकार ईश्वरका शरीर भी हमारे देखनेमें नहीं आता है, यह सदेह दूर नहीं हो सकता है। भावार्थ-यदि कहो कि मन्दभाग्यसे ईश्वरका शरीर नहीं दीखता है, तो यह हम नहीं मान सकते है, क्योकि, ईश्वरके शरीर है, वा नहीं है, यह संशय दूर नहीं होता । यदि कहो कि. ईश्वर को शरीररहित होकर जगतको बनाता है, तो ऐसा कहनेमे दृष्टान्त और ढान्तिकके असमानता होती है । क्योंकि, कार्यरूप जो घटादिक है, वे शरीरके धारक कुम्भकार आदिसे बनाये हुए देखे जाते है । भावार्थ-घट आदि कार्य सगरीरके बनाये हुए देखे जाते है और तुमने जगतरूप कार्यको अगरीरीका बनाया हुआ मान लिया, इसलिये घटनप जो दृष्टान्त है, वह जगतरूप दार्टान्तिy कमें घटित नहीं होता है । और शरीररहित उस ईश्वरके कार्यकरनेम सामर्थ्य भी कहासे आसकता है । क्योकि, शरीररहित आ काश आदिमें कार्यकरनेका सामर्थ्य नहीं देखा जाता है । इस कारण सगरीर और अगरीररूप दोनो पक्षोम ही कार्यत्वरूप हेतुकी A व्याप्ति सिद्ध नहीं होती है । भावार्थ-तुमने जो जगतको ईश्वरकर्तृक सिद्ध करनेके लिये कार्गलहेतु दिया है, उस कार्यत्वहेतुकी व्याप्ति शरीरसहित अथवा शरीररहित इन दोनों ईश्वरोंमें ही नहीं रहती है । इसकारण तुम्हारा अनुमान मिथ्या है। किञ्च त्वन्मतेन कालात्ययापदिष्टोऽप्ययं हेतुः । धर्म्यकदेशस्य तरुविधुदभ्रादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधा-1 तुरनुपलभ्यमानत्वेन प्रत्यक्षबाधितधर्म्यनन्तरं हेतुभणनात् । तदेवं न कश्चिज्जगतः कर्त्ता । एकत्वादीनि तु जगकर्त्तत्वव्यवस्थापनायानीयमानानि तद्विशेषणानि पण्डं प्रति कामिन्या रूपसंपन्निरूपणप्रायाण्येव । तथापि तेषां ।। | विचारासहत्वख्यापनार्थ किंचिदुच्यते। और तुम्हारे मतके अनुसार यह हेतु कालात्ययापदिष्ट भी है। क्योंकि, इससमयमें भी उत्पन्न होते हुए जो जगतरूप धके ॐ एकदेगरूप वृक्ष, विजली और मेघ आदि है, उनका कोई कर्ता देखनेमें नहीं आता है, इस कारण प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित जो धर्मी ॥ २८॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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