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________________ । आव मन स्थाद्वादम. आवश्यक सूचना रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाके अंफोको देखकर बहुतसे मुनिमहाराजी, विद्वानों और ग्रेजुएटोने ममय समयपर प्रशंसापत्र भेजे है। ॥२॥ और सज्जनोको ग्राहक बननेकी प्रेरणाये की है। जिनको हम यहा सानाभावसे मात्र एक प्रगट करते है. पोरबंदरसे मुनिश्रीचारित्र विजयजी गुजराती भाषाम लिखते हैं, जिसका मारांश यह है कि -"रायचन्द्रजैनशाम्रमाला"। के परम पूज्य ग्रन्थ हमको मिले पढनेसे परम प्रसन्नता हुई। यथार्थमं ऐसे ही अन्योंका भाषान्तर (भापा टीका) होना चाहिये। जैनतत्त्वज्ञान सम्बधी ऐसे अन्योंके सिवाय हाल जो अन्यान्य ग्रन्थ छपते हैं, उनसे कुछ लाभ नहीं होगा, परन्तु आपका प्रयानी Koi अवश्यही अभिनन्दनीय है । जैनममूहम ऐसे २ अपूर्व ग्रन्थोफा जय ज्ञान होगा, तब ही हमलोग जैनी रहलाने के योग्य होंगे, और श्रद्धा निर्मल होगी, अतः यह प्रयत्न निरन्तर जारी रखनेके लिये हम प्रेरणा करते है और प्रत्येक जैनीको भी नेहपूर्वक सूचना देते है कि, ऐसे ग्रन्थोके ग्राहक होके अपनी लक्ष्मी मफल करो, और प्रत्येक भंडारोने पसे २ ग्रन्योंका संग्रह करो. मुनिमहाराजो और सजन विद्वजनोसे प्रार्थना है कि जिन ग्रंथों का भाषानुवाद करके छपानेले जनसमाजको विशेषलाभ। होनेकी सभावना हो, उन ग्रन्थोके नाम और पतेसे हमको मूनित करे तथा जाजनक दम गानमालाद्वारा जो ग्रन्थ प्रगट दुग । है उनमें जो त्रुटिये हों उनसे भी नित करें जिससे कि उन त्रुटियों को दूर करनेके लिये आगामी कालमें यथाशक्य प्रयत किया जावे । और अग्रिम वर्षमें जिन २ शामोंका प्रगट करना अत्यावश्यक है उनके विषय में भी विचारपूर्वक संगति प्रदान करे।। स्याद्वादमञ्जरी न्यायविषयका लन्युत्तम तथा कठिन ग्रंथ है; अत. इनको विनारपूर्वक छपाने आदि लिने ही विशेष कारणोंसे : हा अत्यंत विलम्ब होगया है, मो ग्राहकमहागय ग्रंथकी उत्तमतापर ध्यान देकर विलम्बजनित अपराधको क्षमा कर १२ वा अंक स्याद्वादमन्जरीका शेषभाग (जो कि प्राय प्रथम असे दूना बड़ा हो गयाहै) एक ही बार में भेजकर रायनन्द्रजेनगाममालाका द्वितीयवर्षको पूर्ण किया है इसकारण ग्राहकगणमें जो विलम्ब हो गया है उसको भी निष्प्रयोजन न ममसकर क्षमाप्रदान कर; यह प्रार्थना है।। रायचन्द्रजैनगाममालासम्बन्धी सर्वपकारके पत्रव्यवहार करनेका पता शा. रेवाशंकर जगजीवन जोहरी. आनरेरी व्यवस्थापक-श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल. नाहरी बाजार-बम्बई नं०२. ॥२॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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