SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्यैव पादेश्चलाचलरक्तारकावृतानावृतत्वादिविरुद्धधर्माणामुपलव्धेः, सौगतैरप्येकत्र चित्रपटीज्ञाने नीलानीलयोविरोधानङ्गीकारात् । .. ..... . . . . . . . . . . __ और स्याद्वादमें अर्थात् एक ही पदार्थमें कथंचित् नित्यता और अनित्यतारूप दोनों धर्मोको माननेवाले हमारे पक्षमें तो पूर्व IN आकारका त्याग करना १, उत्तर आकारका खीकार करना २, और सर्व अवस्थाओंमें द्रव्यखभावसे स्थित रहना ३, इन खरूप जो || उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य रूप परिणाम है, उसके माननेसे पदार्थों के अर्थक्रियाकी सिद्धि विरोध रहित है । शंका-एक पदार्थमें || परस्पर विरोध रखनेवाले नित्य और अनित्यरूप दोनों धर्मोका रहना असंभव है, इसकारण तुम्हारा स्याद्वाद मिथ्या है । समाधानऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि, स्याद्वादमें नित्यपक्ष तथा अनित्यपक्षसे भिन्न जो नित्यानित्यरूप तीसरा पक्ष है, वह खीकार किया। गया है । और पदार्थोंमें इसी प्रकारसे अर्थात् नित्यानित्यरूपतासे ही सबको अनुभव भी होता है । सो ही दिखलाते है ।-"जो एक भागमें सिह है तथा दूसरे भागमें मनुष्य है, उस भागरहित पदार्थको विभाग करके नरसिंह कहते है ।१।' भावार्थ-नृसिंहावतार शरीरके एक भागमें तो सिंहके समान है, और दूसरे भागमें पुरुषके समान है, इसकारण यद्यपि वह एक ही शरीरमें परस्पर विरुद्ध दो आकृतियोंको धारण करनेसे भाग रहित है, तथापि लौकिकजन विभाग करके उसको नरसिंह कहते है। इसी प्रकार हमारा स्याद्वाद भी है । वैशेषिकोंने भी एक चित्ररूप अवयवी माना है अर्थात् रक्त, पीत, नील आदि अनेक वर्णरूप धर्मोंको धारण करनेवाले एक चित्ररूप पदार्थको जुदा माना है । और एक ही वस्त्र आदि पदार्थके चल ( हिलते हुए ) अचल ( नहीं | हिलते हुए) रक्त ( लाल ) अरक्त ( लालरंगसे भिन्न ) आवृत ( ढके हुए ) अनावृत ( नहीं ढके हुए ) आदि परस्पर विरुद्ध धर्मोंकी प्राप्ति होनेसे बौद्धोंने भी एक चित्र ( अनेक ) वर्णके धारक वस्त्रके ज्ञानमें नील वर्ण और नीलसे भिन्न-श्वेत, पीत आदि| वर्गों के परस्पर विरोध नहीं माना है ॥ भावार्थ-एक ही वस्त्र किसी भागमें तो हिलता रहता है और किसीमें नहीं हिलता है। एक भागमें लालवर्णको धारण करता है और दूसरे भागमें पीतवर्णको धारण करता है । एवं एक भागमें किसी दूसरेसे ढका हुआ रहता है और दूसरेमें खुला हुआ। ऐसा देखे जानेसे बौद्धोनें एक वस्त्रके ज्ञानमें नील और पीतवर्णका विरोध नहीं माना है। I अत्र च यद्यप्यधिकृतवादिनः प्रदीपादिकं कालान्तरावस्थायित्वात्क्षणिकं न मन्यन्ते । तन्मते पूर्वापरान्ता वच्छिन्नायाः सत्ताया एवानित्यतालक्षणात् । तथापि बुद्धिसुखादिकं तेऽपि क्षणिकतयैव प्रतिपन्नाः। इति तद
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy