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________________ रोजै.शा. स्थाद्वादमं. Y यदि बौद्ध कहै, कि तुम्हारा माना हुआ नित्य पदार्थ एकरूप होनेसे अक्रम ( क्रमरहित ) है। और अक्रम पदार्थसे क्रमिक (क्रमसे होनेवाले ) अनेक कार्योंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। तो हमको खेद होता है कि, देवानांप्रिय ( मूर्ख ) बौद्ध अपना पक्षपाती ॥२२॥ है। क्योंकि, जो खयं एक और अंशरहित (क्षणमात्रवर्ती ) रूप आदि पदार्थरूप कारणसे अनेक कारणोंद्वारा सिद्ध होने योग्य IMG अनेक कार्योंकी उत्पत्ति मान करके भी नित्य पदार्थसें क्रमसे नानाकार्योंके करना माननेरूप भी पर ( हमारे ) पक्षमें विरोधको उत्पन्न करता है। भावार्थ-बौद्ध जब निरंश पदार्थ ही से एक क्षणमें क्रमिक अनेक कार्योंका होना मानता है, तब हम जो चिरकालIM स्थायी नित्यपदार्थसे क्रमद्वारा अनेक कार्योंका होना मानते है, उसमें दोष क्यों देता है । इसकारण सिद्ध हुआ कि क्षणिक पदार्थके .. भी अक्रमसे अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। . इत्यनित्येकान्तादपि क्रमाऽक्रमयोर्व्यापकयोनिवृत्त्यैव व्याप्यार्थक्रियापि व्यावर्तते । तद्व्यावृत्तौ च सत्त्वमपि Kg व्यापकानुपलब्धिबलेनैव निवर्तते । इत्येकान्ताऽनित्यवादोऽपि न रमणीयः। . .. . इसप्रकार एकान्त अनित्य पदार्थसे भी क्रम अक्रमरूप व्यापककी रहिततासे ही व्याप्य जो अर्थक्रिया है, वह भी दूर होती और अर्थक्रियाके दूर होनेपर व्यापककी अप्राप्तिके बलसे ही सत्त्व भी दूर होता है । भावार्थ-अर्थक्रिया जो है सो क्रम और व अक्रमसे व्याप्त है, और एकान्त अनित्यपदार्थसे क्रम तथा अक्रमद्वारा अर्थक्रिया नहीं होती है । इसलिये अपने व्यापक जो क्रम अक्रम हैं, उनके अभावमें क्रम, अक्रमसें व्याप्य जो अर्थक्रिया है, वह दूर होती है । और नष्ट होता हुआ अर्थक्रियारूप व्यापक अपनेसे व्याप्य अर्थक्रियाकारित्वका नाश करता है । एव अपना व्यापक जो 'अर्थक्रियाकारित्व है, उसका अभाव होनेसे सत्त्व (वस्तुत्व ) भी नष्ट होता है। इस कारण एकान्त अनित्यवाद अर्थात् सर्वथा-पदार्थोंको अनित्य मानना भी ठीक नहीं है। - स्याद्वादे तु पूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणामेन भावानामर्थक्रियोपपत्तिरविरुद्धा । न चैकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्माध्यासाऽयोगादसन् स्याद्वाद इति वाच्यम् । नित्यानित्यपक्षविलक्षणस्य पक्षान्तरस्या- झीक्रियमाणत्वात् , तथैव च सर्वैरनुभवात् । तथा च पठन्ति ।- "भागे सिंहो नरो भागेयोऽर्थो भागद्वयात्मकः। तमभाग विभागेन नरसिंह प्रचक्षते । १।" इति। वैशेषिकैरपि चित्ररूपस्यैकस्यावयविनोऽभ्युपगमात् । एक ya ॥२२॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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