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________________ सम्बन्धः । न तावत्संयोगो द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । अत्र तु उपकार्य द्रव्यं, उपकारश्च क्रियेति न संयोगः। नापि समवायस्तस्यैकत्वाद् व्यापकत्वाच्च प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वान्न नियतैः सम्बन्धिभिः॥ सम्बन्धो युक्तः । नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः । तथा च । सत्युपकारस्य भेदाभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकारस्य समवायादभेदे समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे पुनरपि । समवायस्य न नियतसम्बन्धिसंबंधत्वम् । तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते। | अब यदि वादी यह कहैं कि-सहकारियोंका जो उपकार है वह पदार्थसे भिन्न है, तो वह उपकार जब पदार्थ से जुदा हुआ तब | यह कैसे मालुम हुआ कि, यह उपकार पदार्थका ही है सह्य और विंध्य नामक जो दो पर्वत है, उनको आदि ले अन्य पदार्थोंका भी क्यों नहीं है । भावार्थ-उपकारसे जैसे नित्य पदार्थ भिन्न है, वैसे ही सह्याचल, विध्याचल भी भिन्न है । तब यह उपकार नित्यपदार्थका ही है यह कैसे जान पड़ा ? इसके उत्तरमें यदि वादी यह कहै कि नित्यपदार्थके साथ उस उपकारका संबंध है, इसलिये जान लिया जाता है कि, यह उपकार इस नित्यपदार्थका है" तो हम (जैनी) पूछते है कि, उपकार्य ( जिसके ऊपर उपकार किया जाय ) और उपकार इन दोनोंके परस्पर कौनसा संबन्ध है ? । यदि कहो कि, 'उपकार्य ( पदार्थ )के और उपM कारके संयोग नामक संबन्ध है' तो यह तो हो नहीं सकता । क्योंकि, जो संयोग संबन्ध होता है, वह परस्पर द्रव्योंके ही होता है अर्थात् द्रव्यके साथ जो द्रव्यका संबन्ध होता है, वही संयोग संबन्ध कहलाता है और यहांपर जो उपकार्य है, वह तो द्रव्य है तथा उपकार है वह क्रिया है । इसकारण इनमें सयोग संबन्ध नहीं है । फिर यदि वादी यह कहै कि 'उपकार्य और उपकारके समवाय सबन्ध है' तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि, वह समवाय एक और व्यापक (सबमें रहनेवाला) है । इसकारण उस समवाय संबन्धके न तो कोई पदार्थ समीप है ? और न दूर है। सब पदार्थों में वह समवाय समान है । इस लिये नियत संवन्धियोंके साथ उस समवायसंवन्धका मानना ठीक नहीं है । और यदि वादी नियतसंबन्धियोंके साथ समवायका संवन्ध स्वीकार ही करें तो उनको उन सहकारियोंसे किया हुआ जो उपकार है, वह इस समवायका मानना चाहिये । और ऐसा जब हुआ तो जो पहले उपकारके विषयमें भेद तथा अभेद रूप दो कल्पनायें की गई थी वे वैसीकी वैसी ही रही। और जब समवायसे उपकारका अभेद माना गया तब तो सहकारियोंने उपकार नहीं किया कितु समवाय ही किया। और जो भेद माना तो फिर भी -
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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