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________________ स्थाद्वादमं. ॥१९॥ नहीं होते हुए उन कार्योंकी उपेक्षा क्यों करता है। शीघ्र ( झटपट ) ही उन कार्योंको क्यों नहीं बना डालता है। यदि वादी यह कहै कि, वृक्षका वीज समर्थ है, तो भी जव उसके साथ पृथिवी, जल और वायु आदि सहकारी कारणोंका सयोग होता है, तभी वह बीज अकुरेको उत्पन्न करता है और पृथिवी आदि सहकारियोंका अभाव हो तो, वह समर्थ भी बीज अकुरको उत्पन्न ४ नहीं कर सकता है। इसी प्रकार नित्य पदार्थ समर्थ है, तो भी सहकारियोंके बिना कार्यको नहीं करता है । तो हम ( जैनी) पूछते है कि, सहकारी उस नित्यपदार्थका कुछ उपकार करते है या नहीं। यदि वादी यह कहै कि, “सहकारीकारण जो है वे का कुछ भी उपकार नहीं करते है।" तो वह पदार्थ जैसे सहकारियोंके मिलने के पहले अर्थक्रिया उदास था, वैसे ही सहकारियोंका सयोग होने पर भी अर्थक्रियामें उदास क्यों नहीं रहता है अर्थात् सहकारी जब पदार्थका उपकार नहीं करते है तो 9 जैसे सहकारियोंके बिना वह पदार्थ कार्यको नहीं कर सकता था वैसे ही उन सहकारियोंके सद्भावमें भी कार्यको न करै । कदाचित् वादी कहै कि जो सहकारी है, वे पदार्थका उपकार करते है तो हम (जैनी) पूछते है कि सहकारी जो उपकार करते है, । वह पदार्थसे अभिन्न (मिला हुआ) करते है, वा भिन्न करते है। यदि सहकारी पदार्थसे अभिन्न ही उपकार करते है, ऐसा कहो, हु, तो सिद्ध हुआ कि वह नित्यपदार्थ ही अर्थक्रियाको करता है । और जब ऐसा हुआ तो जो वादी लाभको चाहते थे उनके मूलका भी नाश हुआ। क्योंकि, कृतकपनेसे उस पदार्थके अनित्यताकी प्राप्ति होगई । भावार्थ-यदि वादी सहकारियोंके उपकार V को नित्यपदार्थसे अभिन्न कहै, तो वह नित्यपदार्थ ही अर्थक्रियाको करता है यह सिद्ध हुआ। और तब जैसे कोई व्याजकी इच्छासे किसीको द्रव्य देवै और फिर वह द्रव्य लेनेवाला पीछा द्रव्य न दे तो व्याज चाहनेवालेके व्याजकी तो हानि हो ही हो परन्तु मूलy धन भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पहले जो 'नित्यपदार्थ क्रमसे अर्थक्रिया करता है वा अक्रमसे' यह प्रश्न किया था। इसका र तो उत्तर वादी दे-ही न सके और सिवायमें अपने उसे नित्यपदार्थको अनित्य वना बैठे । क्योंकि, जो पदार्थ अपने खभावकी सिद्धिमें दूसरेके व्यापारकी इच्छा करता है, वह कृतक कहलाता है और जो कृतक होता है वह अनित्य होता है। यहा पर बादीके कथनानुसार जब पदाथेने सहकारियोंकी अपेक्षा रक्खी तो वह पदार्थ कृतक हुआ और कृतक होनस वह पढाथ नित्य न रहा, किन्तु अनित्य हो गया। __ भंदे तु स कथं तस्योपकारः किं न सह्यविन्ध्यागुरपि । तत्संबन्धात्तस्यायमिति चेत्-उपकार्योपकारयोः क ॥१९॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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