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________________ साद्वादमा ॥१३॥ राजनि राज्यश्रियं शासति सति सर्वाः प्रजास्तन्मुद्रां नातिवर्तितुमीशते। तदतिक्रमे तासां सर्वार्थहानिभावात् । राजै.शा. एवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्रे तदीयमुद्रां सर्वेऽपि पदार्था नातिकामन्ति । तदुलन्ने तेपां स्वरूपव्यवस्थाहानिप्रसक्तेः ॥ व्याख्यार्थः-'आदीपं दीपकसे लेकर 'आव्योम' आकाशपर्यन्त 'वस्तु' सब पदार्थोंका खरूप 'समखभावं समान है। (एकसे) स्वभाववाला है। किंच हम 'वस्तुका स्वरूप द्रव्य और पर्यायरूप है। ऐसा कहते है । और वाचकमुख्य (श्रीउमास्वाति )नें भी "जो उत्पाद (उत्पत्ति ) व्यय (नाग) तथा धौव्य (नित्यता )से युक्त है, वह सत् ( वस्तु ) है" इसी प्रकार वस्तुका लक्षण कहा है। सब वस्तु समान स्वभावका धारक कैसें है ? इस आशंकामें विशेषण द्वारा हेतुका कथन करते है। 'स्याद्वादमुद्रानतिभेदि' 'स्यात्' यह अनेकान्तको सूचित करनेवाला अव्यय है। इस कारण स्याद्वादका अर्थ अनेकान्तवाद अर्थात् नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मोंके धारक एक वस्तुका स्वीकार करना है । उस स्याद्वादकी मुद्रा अर्थात् मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला | नही है । भावार्थ-जैसे न्यायमें ही तत्पर ऐसा कोई राजा राज्यलक्ष्मीका शासन करता हो, तो समस्त प्रजा उसकी मुद्रा (मोहर) IN का उल्लंघन नहीं कर सकती है। क्योंकि, उसके उल्लघन करनेसे उस प्रजाके सर्वस्व (सब धन )का नाश हो जावे । इसीप्रकार | कंटक (शत्रु ) रहित, और विजयी ऐसे स्याद्वादरूपी महाराजके विद्यमान रहते हुए, सब ही पदार्थ उस स्याद्वादकी मुद्राका उल्लघन नहीं कर सकते है। क्योंकि, उसका उल्लंघन करनेपर उनके अपने स्वरूपकी जो व्यवस्था (स्थिति) है, उसके नाशका प्रसंग होता है। सर्ववस्तूनां समस्वभावत्वकथनं च पराभीष्टस्यैकं वस्तु व्योमादि नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपाद्यनित्यमेव, इति वादस्य प्रतिक्षेपबीजम् । सर्वे हि भावा द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्याः,पर्यायार्थिकनयादेशात्पुनरनित्याः। तत्रैकान्ताऽनित्यतया परैरङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य तावन्नित्यानित्यत्वव्यवस्थापने दिमात्रमुच्यते । आचार्यने जो 'सब पदार्थ समान खभावके धारक है। ऐसा कहा है, सो 'आकाश आदि एक पदार्थ नित्य ही है और दूसरे ३॥ प्रदीप आदि पदार्थ अनित्य ही है' इसप्रकार जो वैशेषिकोंका माना हुआ एकान्तवाद है, उसके खडन करनेमें बीज (कारण) १ प्राधान्यात्, अपेक्षातो वा।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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