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________________ रहित है, यह पक्ष जो कह आये है, इसका खंडन आगे करेंगे। इसी लिये उन वादियोंके स्खलन क्रियासे हास्यकी योग्यता प्रकट की जाती है । क्योंकि, जो अन्य प्रकारसे स्थित वस्तुके खरूपको आप अन्य प्रकारसे मानता है और अन्य पुरुषोंको भी उसी प्रकार समझाता है, वह आप नाशको प्राप्त होकर दूसरोंका भी नाश करता है । इसलिये निश्चयकर उसके सिवाय कोई दूसरा हास्यका पात्र | नहीं है । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ४ ॥ अथ तदभिमतावकान्तनित्यानित्यपक्षौ दूषयन्नाह ।। IN अब वैशेषिकमतवालोंके अभीष्ट जो एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पंक्ष हैं, उन दोनों एकान्तपक्षोंमें दोष देते हुए आचार्य अग्रिम काव्यका कथन करते है - . आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥५॥ IN काव्यभावार्थः-दीपकसे लेकर आकाश पर्यन्त अर्थात् समस्त ही पदार्थ समान स्वभावके धारक हैं। क्योंकि, सब ही पदार्थ स्याहादकी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते हैं। तथापि उनमें दीपक आदि कितने ही पदार्थ सर्वथा अनित्य हैं और आकाश आदि कितने ही पदार्थ सर्वथा नित्य हैं । इस प्रकार आपकी आज्ञासे द्वेष रखनेवालोंके अर्थात् वैशेषिक मतवालोंके प्रलाप हैं ॥ ५॥ Kel व्याख्या । आदीपं दीपादारभ्य आव्योम व्योम मर्यादीकृत्य सर्व वस्तु पदार्थस्वरूपं समस्वभावं समस्तुल्यः स्वभावः स्वरूपं यस्य तत्तथा । किञ्च-वस्तुनः स्वरूपं द्रव्यपर्यायात्मकत्वमिति ब्रूमः । तथा च वाचकमुख्यः"उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” इति । समस्वभावत्वं कुत इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह । स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् । ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादो नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । तस्य मुद्रा मर्यादा तां नाऽतिभिनत्ति नातिकामतीति स्याद्वादमुद्रानतिभेदि । यथा हि न्यायैकनिष्टे
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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