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________________ मानना तो ऐसा ही है जैसा एक चोरसे भयभीत होकर दूसरे चोरका शरण लैना । यदि वह स्थिर है तो नाम बदलकर आत्मा ही स्वीकार किया समझना चाहिये । इस प्रकार जबतक क्षणिकपना मानाजायगा तबतक स्मृति होना असंभव ही है । स्मरण न होनेसे अनुमान भी न होसकैगा यह दोष तो पहिले ही दिखा चुके है । अपि च स्मृतेरभावे निहितप्रत्युन्मार्गणप्रत्यर्पणादिव्यवहारा विशीर्येरन् । “इत एकनवतेः कल्पे शक्त्या मे पुरुषो | हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः" इति वचनस्य च का गतिः । एवमुत्पत्तिरुत्पादयति, स्थितिः। स्थापयति, जरा जर्जरयति, विनाशो नाशयति इति चतुःक्षणिकं वस्तु प्रतिजानाना अपि प्रतिक्षेप्याः । क्षणचतुष्कानन्तरमपि निहितप्रत्युन्मार्गणादिव्यवहाराणां दर्शनात् । तदेवमनेकदोषापातेऽपि यः क्षणभङ्गमभिप्रैति तस्य महत् साहसम् । इति काव्यार्थः । परंतु एक और भी दोष यह संभव है कि यदि स्मृति नही रहेगी तो जो धरोहर रखदी गई है उसको मागेगा कौन तथा पीछा देगा कौन? ऐसे व्यवहारोंका नाश ही होजायगा । और " अबसे इक्यानवैमें कल्पमें मैने बलात्कारसे एक पुरुष मारड़ाला था उसी कर्मके खोटे फलसे हे भिक्षुको ! यह मेरा पैर छिदा है " इस वचनके विषय में क्या उत्तर होसकैगा ? इसी प्रकार जो उत्पत्ति स्थिति जरा तथा मरणके क्रमसे चार क्षण पर्यंत वस्तुकी स्थिति मानते हैं उनका कहना भी अनुचित है । प्रथम क्षणमें तो वस्तुकी उत्पत्ति, दूसरे स्थितिक्षणमें वस्तुकी स्थिति, तीसरे जराक्षणमें वस्तुकी अवस्था जर्जरित होना तथा चोथे मरणक्षण में वस्तुका नाश ऐसे चार क्षण ही वस्तु रहसकती है ऐसा वे कहते हैं परंतु यह कहना दूषित है । क्योंकि, चार क्षणके अनंतर भी रक्खी हुई धरोहरका लैना दैना देखा जाता । इस प्रकार अनेक दोष आते हुए भी जो क्षणभंगुरता मानता है उसका बड़ा | भारी साहस समझना चाहिये । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । अथ तथागताः क्षणक्षपक्षे सर्वव्यवहारानुपपत्तिं परैरुद्भावितामाकर्ण्यत्थं प्रतिपादयिष्यन्ति यत्पदार्थानां क्षणिकत्वेऽपि वासनावललब्धजन्मना ऐक्याध्यवसायेन ऐहिकामुष्मिकव्यवहारप्रवृत्तेः कृतप्रणाशादिदोषा निरवकाशा एवेति । तदाकूतं परिहर्तुकामस्तत्कल्पितवासनायाः क्षणपरम्परातो भेदाभेदानुभयलक्षणे पक्षत्रयेप्यघ| टमानत्वं दर्शयन् स्वाभिप्रेतभेदाभेदस्याद्वादमकामानपि तानङ्गीकारयितुमाह ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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