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________________ स्याद्वादम. ॥१५॥ एवायमिति किमनेन स्तेनभीतस्य स्तेनान्तरशरणस्वीकरणानुकरणिना। स्थिरश्चेदात्मैव संज्ञाभेदतिरोहितः प्रति-नाराजै.शा पन्नः। इति न स्मृतिर्घटते क्षणक्षयवादिनाम् । तदभावे चाऽनुमानस्याऽनुत्थानमित्युक्तं प्रागेव । ___ कदाचित् कहों कि “जिस सतानमें कर्मोकी वासना होती है उसी संतानद्वारा उन कर्मोंका फल भोगा जाता है । जैसे जिस कपासके बीजमें लालिमा होती है उसके बोनेपर उसीसे उपजे कपासमें लालिमा आती है। यह कपासलालिमाका दृष्टांत मिलता है परंतु इस दृष्टांतसे न तो कुछ सधसकता है और न किसी वचनमें बाधा पड़सकती है। कार्यकारणपना जहां जहां होता है वहां वहां स्मरण उत्पन्न होता है जैसे कपास और लालिमा ऐसा अन्वय नहीं संभवता है तथा जहां स्मृति नहीं होती वहां कार्यकारणपना भी नहीं होता ऐसा व्यतिरेक भी नहीं घटता है। जहां अन्वय व्यतिरेक संभव हों वहां ही हेतु सिद्ध होसकता है । यदि अन्वयव्यतिरेक ही नहीं होसके तो कार्यकारणरूप हेतु किस प्रकार सिद्ध होसकता है ? जब हेतु सिद्ध हो तभी कार्यकारणपना होनेसे स्मृति होना भी संभव होसकता है । और हमने जो यह कहा था कि जिनमें परस्पर भेद होता है उनमें एकके देखे No हुए पदार्थ की दूसरेको स्मृति होना असंभव है सो इस वचनमें कपास लालिमाके दृष्टांतसे कुछ असिद्धतादिक दोष भी ॐआते नहीं दीखते, जो हमारा कहना असत्य होजाय । और भी एक दोष यह है कि यदि कार्यकारणपनके संबंधमात्रसे के भिन्न भिन्न वस्तुओंमें भी स्मृति उपजसकती हो तो शिष्यको गुरु पढ़ाता है इसलिये शिष्यकी बुद्धि तो कार्य है तथा गुरुकी। बुद्धि कारण है सो यहां भी गुरुके अनुभव किये पदार्थोंका शिष्यको स्मरण होना चाहिये परंतु होता नही है सो क्यों? एक संतानमें ही कार्यकारणरूप संबंधके द्वारा स्मरणका होना मानना भी युक्तिसंगत नही है क्योंकि, जब संतान और बुद्धिक्षणोंमें परस्पर भिन्नता अभिन्नताका विचार करनेलगते है तो सतान कोई चीज सिद्ध नहीं होती । कैसे ? यदि क्षणपरंपरा तथा संतानमें परस्पर अभेद मानाजाय तो क्षणपरंपरा ही रही, सतान कोई भिन्न वस्तु नही ठहरी इसलिये संतानसे कोई अपूर्व कार्य होना असंभव है; जो कुछ कार्य होगा वह क्षणपरंपरासे ही होगा। और यदि क्षणपरंपरासे संतान कोई भिन्न वस्तु ५ है तो भी वह सचमुच कुछ है अथवा कल्पनामात्र ही है ? यदि कल्पनामात्र ही है तब तो फिर भी कुछ कर नहीं सकती है। ॥१५७॥ Ad और यदि सचमुच कोई चीज है तो वह स्थिर है अथवा बुद्धिक्षणादिवत् वह भी क्षणिक है? यदि सतान भी क्षणिक है तब यू तो जैसे क्षणपरंपरामें दोष है तैसे ही दोष इसमे भी संभव होसकते है इसलिये ऐसी संतानके माननेसे भी क्या प्रयोजन ? यह
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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