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________________ अब यथार्थ नयमार्गके विचारका ही विस्तार करनेके लिये परमतियों के माने हुए तत्त्वोंकी प्रमाणताको दूर करते हुए और प्रथम ही ६ काव्योंद्वारा वैशेषिकमतके तत्त्वोंको दूषित करनेकी इच्छा रखते हुए आचार्य सबसे प्रथम उन वैशेषिकतत्त्वोंके मध्य में गिरनेवाले जो सामान्य और विशेष नामक दो पदार्थ है उनको दूषित करनेके लिये इस अग्रिम काव्यका कथन करते है ॥ - स्वतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजी भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥ ४ ॥ काव्यभावार्थ:--पदार्थ अपने आप ही अनुवृत्ति तथा व्यतिवृत्तिको धारण करते हैं । उनका स्वरूप अन्य किसी पदार्थसे प्रतीत होने योग्य नहीं है । इसकारण जो अकुशलवादी असत्यस्वरूप और | पदार्थ से भिन्न ऐसे सामान्य तथा विशेषसे अनुवृत्ति ( सामान्य ) और व्यतिवृत्ति ( विशेष ) प्रत्ययका कथन करते हैं वे पतनको प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥ व्याख्या | अभवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावा: पदार्था आत्मपुद्गलादयस्ते स्वत इति । सर्वं हि वाक्यं | सावधारणमामनन्तीति स्वत एवात्मीयस्वरूपादेवानुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजः । एकाकारा प्रतीतिरेकशब्दवाच्यता चानुवृत्तिः, व्यतिवृत्तिर्व्यावृत्तिर्विजातीयेभ्यः सर्वथा व्यवच्छेदस्ते उभे अपि संवलिते भजन्ते आश्रयन्तीति अनुवृ| त्तिव्यतिवृत्तिभाजः सामान्यविशेषोभयात्मका इत्यर्थः । व्याख्यार्थः--— भावाः ' जो हो चुके, हो रहे हैं और होवेंगे, वे भाव अर्थात् आत्मा, पुद्गल आदि पदार्थ हैं । वे , स्वतः एव ' [ यहां आचार्य सब वाक्योंको एवकारसहित कहते है, इसकारण एवका अध्याहार किया गया है ] अपने आप ही 4 'अनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाज: ' एक आकारवाली प्रतीति और एक शब्दसे कहने योग्यता जो है, उसको अनुवृत्ति ( सामान्य ) १ अन्वयव्यतिरेकयुक्ताः । २ एवकारसहितं ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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