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________________ तत्सिद्धिरिन्द्रियगोचराऽतिक्रान्तत्वात् । यत्तु अहङ्कारप्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यक्षत्वसाधनं तदप्यनैकान्तिक । तस्याहं गौरः श्यामो वेत्यादौ शरीराश्रयतयाप्युपपत्तेः । किं च यद्ययमहङ्कारप्रत्यय आत्मगोचरः स्यात्तदा न कादाचित्कः स्यादात्मनः सदा सन्निहितत्वात् । कादाचित्कं हि ज्ञानं कादाचित्ककारणपूर्वकं दृष्टम् । यथा सौदामनीज्ञानमिति । नाप्यनुमानेन अव्यभिचारिलिङ्गाऽग्रहणात् । आगमानां च परस्परविरुद्धार्थवादिनां नास्त्येव प्रामाण्यम् । तथा हि । एकेन कथमपि कश्चिदर्थो व्यवस्थापितोऽभियुक्ततरेणाऽपरेण स एवान्यथा व्यवस्थाप्यते । स्वयमव्यवस्थितप्रामाण्यानां च तेषां कथमन्यव्यवस्थापने सामर्थ्यम् ? इति नास्ति प्रमाता। ___ यहांपर शून्यवादी ऐसा कहते है कि प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण तथा प्रमिति ये चार तत्त्व जो अन्यवादियोंने कल्पित करलिये हैं वे सर्वथा झूठ है। क्योंकि; विचार करनेपर जिस प्रकार घोडेके सीग किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होते उसी प्रकार ये चारों तत्त्व भी सिद्ध नहीं होते है । इनमेंसे प्रमाता नाम आत्माका है। परंतु इस आत्माका किसी प्रमाणद्वारा ज्ञान न होनेसे यथार्थमें कुछ है ही नहीं। यही दिखाते है। प्रत्यक्षसे तो यह आत्मा जाना ही नही जासकता । क्योंकि इंद्रिय केवल रूप, रस, गध, KG स्पर्शवाले पदार्थोंको ही जान सकती है और इस आत्मामें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं नहीं किंतु यह अरूपी है इसलिये इसको नही जान सकती है। और इस आत्माके आश्रय होनेवाले अहंकारका मानसिक प्रत्यक्ष होनेसे आत्माका मानसिक प्रत्यक्ष मानना भी असत्य है । क्योंकि मै गौरवर्ण हूं अथवा काला हू इस प्रकार जो अहंकार होता है वह शरीरका आश्रय लेकर भी उत्पन्न हो सकता है । जिस धर्मका जिसके साथ संबन्ध माना जाता है उसके अतिरिक्त किसी दूसरे पदार्थके साथ भी उसका संबन्ध यदि रह सकता हो तो उस धर्मको हेतु मानना व्यभिचारी है। और यदि अहंकारका ज्ञान आत्मामें ही होता हो तो कदाचित् ही न होना चाहिये किंतु सदा ही होते रहना चाहिये । क्योंकि, जिस आत्मामें यह उत्पन्न होता है वह आत्मा सदा विद्यमान रहता है । जो ज्ञान कदाचित् ही होता है, सदा नही होता है वह ज्ञान कदाचित् कदाचित् उत्पन्न होनेवाले कारणोंसे ही उत्पन्न होता हुआ देखा | जाता है। जैसे बिजलीका ज्ञान । इस प्रकार प्रत्यक्षसे आत्माकी सिद्धि होना तो असंभव है ही परंत अनमानसे क्योंकि जो आत्माके साथसे कभी बिछुड़ता न हो किंतु सदा साथ ही मिलता हो ऐसा कोई हेतु नहीं दीखता है। और आगम परस्पर विरुद्ध पदार्थों को कहनेवाले है इसलिये उनकी तो प्रमाणता होना ही दुर्लभ है । यही दिखाते है । एक शास्त्र जिस
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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