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________________ स्याद्वादमं. एवं सति ( अहोइत्युपहासप्रशंसायां ) तुभ्यमसूयन्ति गुणेषु दोषानाविष्कुर्वन्तीत्येवं शीलास्त्वदसूयिनस्तन्त्रा- राजै.शा. तरीयास्तैदृष्टं मत्यज्ञानचक्षुषा निरीक्षितं अहो सुदृष्टं साधु दृष्टम् ! विपरीतलक्षणयोपहासान्न सम्यगदृष्टमित्यर्थः। अत्राऽसूयधातोस्ताच्छीलिकणकप्राप्तावपि बाहुलकाण्णिन् । असूयाऽस्त्येषामित्यसूयिनस्त्वय्यऽसूयिनस्त्वदसूयिन इति मत्वर्थीयान्तं वा । त्वदसूयुदृष्टमिति पाठेऽपि न किंचिदचारु; असूयुशब्दस्योदन्तस्योदयनाद्यैायतात्पर्यपरिशुद्ध्यादौ मत्सरिणि प्रयोगादिति । इस प्रकार शून्यवादीका मत सदोष सिद्ध होनेपर 'अहो' शब्दसे उसकी हसी करते है । 'अहो' शब्दका अर्थ कहीपर तो हसी करना होता है और कहीपर प्रशंसा करना होता है । हे भगवन्! तुझारे विषयमें असूया करनेवाले अर्थात् तुझारे गुणोंमें | दोष प्रकट करनेकी इच्छा रखनेवाले अन्यमतोंके धारक लोगोने जो कुछ अपने खोटे मतिज्ञानरूपी नेत्रोंसे देखा है वह 'अहो' " अर्थात् विचार करते हुए हमको हसी आती है कि कितना यथार्थ देखा है !!! यहांपर हसी इसलिये आती है कि उन्होने जो देखा है वह कुछ भी ठीक नही देखा है । यथार्थ देखा है ऐसा यहांपर कहना भी हसी आनेके कारण ही है। यहापर 'त्वदऽसूयिदृष्टम्' इस पदमें जो ‘असूयि' शब्द है वह असूय धातुसे असूया करना है खभाव जिसका ऐसे अर्थमें बनता है। और यद्यपि यहा 'ण' प्रत्यय प्राप्त होनेसे 'असूयक' शब्द बनना चाहिये था परंतु उस णकप्रत्ययके प्रकरणमे बहुलताके अर्थका आश्रय लियागया है इसलिये 'असूय' धातुसे णिन् प्रत्यय होजानेपर 'असूयि' शब्द भी बनजाता है। व्याकरणशास्त्रमें बहुलता उसीका नाम है जिसका आश्रय लेनेसे नियमविरुद्ध प्रत्यय भी प्रयोगपरिपाटीके अनुसार हो जाते है। अथवा जिनमें असूया ) रहती हो वे असूयी है इस प्रकार 'असूया' शब्दसे तद्धितके प्रकरणकी मत्वर्थीय 'इन्' प्रत्यय करनेसे भी 'असूयी' शब्द बनजाता है । जो तुझारे गुणोमें असूया करते है उनको त्वदसूयी कहते है। त्वदसूयियोंकर देखे हुए पदार्थको त्वदसूयिदृष्ट कहते है । पूर्वोक्त कारिकामे कोई 'त्वदसूयुदृष्टम् । ऐसा पाठ भी मानते है परंतु कुछ हानिकारक नहीं है। क्योंकि; ईर्षासूचक उकारांत असूयु शब्दका उच्चारण उदयनादिक ग्रन्थकारोने भी अपने बनाये हुए न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि आदिक ग्रन्थोमें किया है। ॥१४५॥ इह शून्यवादिनामयमभिसंधिः-प्रमाता प्रमेयं प्रमाणं प्रमितिरिति तत्त्वचतुष्टयं परपरिकल्पितमवस्त्वेव विचाॐ रासहत्वात्तुरङ्गशृङ्गवत् । तत्र प्रमाता तावदात्मा । तस्य च प्रमाणग्राह्यत्वाऽभावादभावः। तथा हि । न प्रत्यक्षेण
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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