SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादमं. 19 वस्तु जिससे उत्पन्न हुई हो तथा जिसकासा आकार रखती हो उसको वह वस्तु जानसकै" सो यह कहना भी ठीक नहीं है। राजे-शा क्योंकि; पीछेसे उत्पन्न हुआ ज्ञान यद्यपि पहिले ज्ञानके सर्वथा सदृश है तथा उसीसे उत्पन्न हुआ है तथा खयं ज्ञानरूप भी है। ॥१३४॥ इसलिये सर्व कारण मिलते हैं तो भी प्रथम ज्ञानको जानता नहीं है परंतु बौद्धोंके कथनानुसार तो जानना ही चाहिये । इसलिये प्रत्येक ज्ञान अपने अपने विषयको ही जानता है अन्यको नहीं ऐसा नियम होंनेमें निमित्त कारण योग्यता ही है; योग्यताके सिवाय अन्य कोई भी निश्चायक नही दीखता है । अथोत्तरार्द्धं व्याख्यातुमुपक्रम्यते । तत्र च वाह्यार्थनिरपेक्ष ज्ञानाद्वैतमेव ये वौद्धविशेषा मन्वते तेपांप्रतिक्षेपः। तन्मतं चेदम् । ग्राह्यग्राहकादिकलङ्काऽनङ्कितं निष्प्रपञ्चं ज्ञानमात्रं परमार्थसत् । वाह्यार्थस्तु विचारमेव न क्षमते । तथा हि । कोऽयं वाह्योर्थः? किं परमाणुरूपः स्थूलावयविरूपो वा? न तावत्परमाणुरूपःप्रमाणाऽभावात् । प्रमाणं हि प्रत्यक्षमनुमानं वा ? न तावत्प्रत्यक्षं तत्साधनवद्धकक्षम् । तद्धि योगिनां स्यादस्मदादीनां वा? नाद्यम्; अत्यन्तविप्रकृष्टतया श्रद्धामात्रगम्यत्वात् । न हि द्वितीयमनुभववाधितत्वात् । न हि वयमयं परमाणुरयं परमाणुरिति स्वमेऽपि प्रतीमः स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमित्येवमेव नः सदैव संवेदनोदयात् । नाप्यनुमानेन तत्सिद्धिः; अणूनामतीन्द्रियत्वेन तैः सह अविनाभावस्य क्वापि लिङ्गे ग्रहीतुमशक्यत्वात् । ___ इस प्रकार चाल सूत्रमेंसे प्रथमके " न तुल्यकालः फलहेतुभावो हेतौ विलीने न फलस्य भावः" इन दो चरणोंका अर्थ " तो लिखा अब आगेके " न संविदद्वैतपथेऽर्थसंविद्विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम्" इन दो चरणोंका व्याख्यान लिखते है।" इन दो चरणोमें उन बौद्धोका खंडन है जो बाह्य पदार्थको सर्वथा न मानकर ज्ञानाद्वैत ही मानते हैं। वे ऐसा कहते है। कि यह जाननेका विषय है अथवा यह जाननेवाला है इत्यादि झगड़ोसे रहित, अनेक प्रकारके और भी प्रपंचोंसे रहित ज्ञानमात्र ही केवल यथार्थ वस्तु है । इसके सिवाय बाह्य वस्तु तो विचार करने पर ठहरता ही नहीं है अथवा सिद्ध ही नहीं होता है। कैसे नहीं सिद्ध होता है सो दिखाते हैं। बाह्य पदार्थ क्या वस्तु है ? क्या परमाणुरूप है अथवा स्थूल अवयवीरूप ? परमाणुरूप होने में तो कोई प्रमाण ही नही है। बौद्धलोग प्रमाण दो ही मानते हैं। एक तो प्रत्यक्ष और दूसरा अनुमान । यदि परमाणुरूप । मानने में कोई प्रमाण होतो बौद्धोंके अनुसार इन्ही दोमेंसे कोई एक होसकता है। यदि प्रत्यक्ष माने तो प्रत्यक्ष भी दो प्रकार है प्रथम ॥१३४॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy