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________________ सकता है अन्य नही ऐसी योग्यताके सिवाय अन्य कुछ भी पदार्थकी समानता ज्ञानमें नहीं है। इसीलिये निश्चय करने योग्य पदार्थका निश्चय होजानेसे ज्ञानमें पदार्थकासा आकार होना कहसकते हैं।" | अपि च व्यस्ते समस्ते वैते ग्रहणकारणं स्याताम् ? यदि व्यस्ते तदा कपालाद्यक्षणो घटाऽन्त्यक्षणस्य जलचन्द्रो वा नभश्चन्द्रस्य ग्राहकः प्राप्नोति; यथासंख्यं तदुत्पत्तेस्तदाकारत्वाच्च । अथ समस्ते तर्हि घटोत्तरक्षण माणस्य ग्राहकः प्रसज्यते तयोरुभयोरपि सद्भावात् । ज्ञानरूपत्वे सत्येते ग्रहणकारणमिति चेत्तर्हि समानजातीयज्ञा ग्राहकत्वं प्रसज्येत तयोर्जेन्यजनकभावसनावात् । तन्न योग्यतामन्तरेणाऽन्यद् ग्रहणकारMणं पश्याम इति । और भी एक दोष यह है कि ज्ञानकी पदार्थसे उत्पत्ति होना तथा ज्ञानमें पदार्थकासा आकार होना ये दोनों पदार्थका नियत ज्ञान होनेमें जुदे जुदे कारण माने है अथवा मिलकर ? यदि एक एक कारण हैं अर्थात् कहींपर तो पदार्थसे उत्पत्ति होना ही नियत पदार्थके प्रकाशनेमें कारण है और कहींपर पदार्थकासा आकार होना ही कारण है तो घटकी प्रथम पर्यायसे तो घटकी अंतिम पर्याय उत्पन्न होती है इसलिये घटकी प्रथम पर्याय घटकी अंतिम पर्यायमें प्रकाशित होनी चाहिये और जो जलमें चंद्रमाका प्रतिबिंब पड़ता है उस प्रतिबिंबको असली चंद्रमाका ज्ञान होना चाहिये। क्योंकि; जलका चंद्रमा असली चंद्रमाका आकार ही है। परंतु घटका प्रथम पर्यायका घटकी अंतिम पर्यायको तथा जलचंद्रमाको असली चंद्रमाका ज्ञान नही होता है इसलिये पदार्थाकार तथा पदार्थसे उत्पत्ति ये जुदे जुदे तो नियत पदार्थके ज्ञान होनेमें कारण नही होसकते हैं । यदि कहों कि ज्ञान नियमित पदार्थको ही जानता है अन्यको नही इस नियममें ज्ञान जिस पदार्थको विषय करता है उस पदार्थकासा ज्ञानका आकार तथा उसी पदार्थसे उस ज्ञानकी उत्पत्ति होना ये दोनो मिलकर निमित्त हैं सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि; घड़ा फूटजानेपर उस घड़ेकी दूसरी अवस्थामें घड़ेका आकार तथा घड़ेसे उत्पत्ति ये दोनों कारण तो विद्यमान हैं परंतु तो भी वह दूसरी अवस्था उस घड़ेको जान नहीं सकती है। यदि ये दोंनो ही पदार्थका निश्चित ज्ञान होनेमें कारण होते तो यहां भी निश्चित ज्ञान होना चाहिये था । यदि कहों कि “ यदि जो ज्ञान किसी पदार्थसे उत्पन्न हुआ हो तथा उस पदार्थके ही आकारकासा हो तो वह ज्ञान उसी पदार्थको जानेगा जिससे वह उत्पन्न हुआ है तथा जिसका आकार उसमें पड़ा है किंतु यह नियम नहीं है कि कोई भी
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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