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________________ सत्वं तथा यदि पररूपादिनापि स्यात् तथा च सति स्वरूपादित्ववत्पररूपादित्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं भ-3 वेत् ? परासत्त्वेन तु प्रतिनियतोसौ सिध्यति । अथ न नाम नास्ति परासत्त्वं किन्तु स्वसत्त्वमेव तदिति चेदहो वैदग्धी! न खलु यदेव सत्त्वं तदेवासत्त्वं भवितुमर्हति । विधिप्रतिषेधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयोरैक्यायोगात्। | अब जो बौद्धलोग पदार्थमें परकी अपेक्षा असत्त्व (अभाव) नहीं मानते है उनके मतमें घटादि पदार्थ सर्वजगन्मय होने लगेंगे । कैसे सो कहते है। जैसे घट खरूपादिकी अपेक्षासे सत् है तैसे यदि पररूपादिकी अपेक्षा भी सत् ही हो तो स्वरूपादिकी अपेक्षा सत् होनेके समान पररूपादिकी अपेक्षा भी सत् माननेसे सर्वात्मकपना क्यों न हो ? अन्यकी अपेक्षा असत् माननेपर तो ऐसा सिद्ध होसकता है कि यह यही है अन्य नही । “घटादिकमें अन्य पदार्थोका असत्त्व न हो ऐसा नही है किंतु अपनी सत्ता शाही परकी असत्ता है" यदि बौद्धोका ऐसा कहना हो तो धन्य है वौद्धोकी बुद्धिमत्ता! क्योंकि जो सत्त्व बही असत्त्व कैसे हो सकता है ? क्योंकि; विधि तथा प्रतिषेध, ये परस्पर विरोधी दो धर्म जिनमें हों उनमें एकता कैसी ? I अथ युष्मत्पक्षेप्येवं विरोधस्तदवस्थ एवेति चेदहो वाचाटता देवानां प्रियस्य । न हि वयं येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वं येनैव चासत्त्वं तेनैव सत्त्वमभ्युपेम किं तु स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्त्वं पररूपद्रव्यक्षेत्रकालभावै-IAY स्त्वसत्त्वम् । तदा व विरोधावकाशः? बौद्ध जैनोसे कहते है कि "तुह्मारे मानने में भी यह विरोध है ही" परंतु यह कहना बौद्धोकी बडी धृष्टता है। हम जिस प्रकारसे सवरूप मानते है उसी प्रकारसे असरूप भी मानते हों ऐसा नही है तथा जिस अपेक्षासे पदार्थका खरूप असत् मानते है उसी अपेक्षासे सत् भी मानते हों ऐसा भी नही है। किंतु अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे तो प्रत्येक पदार्थकों सत् मानते हैं तथा अपनेसे भिन्न पदार्थोके द्रव्य क्षेत्र काल भावोकी अपेक्षासे उसी एक पदार्थको असत् भी मानते है। अब कहिये ! विरोध कहां है? यौगास्तु प्रगल्भन्ते “सर्वथा पृथग्भूतपरस्पराभावाभ्युपगममात्रेणैव पदार्थप्रतिनियमसिद्धेः किं तेषामसत्त्वा-1 त्मकत्वकल्पनया” इति तदसत् । यदा हि पटाद्यभावरूपो घटो न भवति तदा घटः पटादिरेव स्यात् । यथा चघटाभावादिन्नत्वाद्धटस्य घटरूपता तथा पटादेरपि स्यात् घटाभावाद्भिन्नत्वादेव । इत्यलं विस्तरेण ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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