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________________ राजै.शा. स्थाद्वादम. ॥११॥ व्यभिचारी होनेसे अनैकान्तिकनामक हेत्वाभास है । अर्थात्-जैसे गन्धद्रव्य अत्यंत सघन पदार्थोंमें प्रवेशकरते तथा उनमेंसे निकलते हुए नही रुकनेपर भी पौद्गलिक है तैसे ही शब्दके भी अत्यंत सघन पदार्थमें प्रवेश करते तथा निकलते हुए नहीं रुकनसे पौलिकपनेमें बाधा नही आसकती है। क्योंकि; उत्तम कस्तूरीआदिक गन्धद्रव्य किवाड़आदिक बंद करदेनेपर भी बाहरसे भीतर घुस जाता है तथा भीतरसे निकल भी आता है परंतु पौद्गलिक ही है; अपौद्गलिक नही है। | अथ तत्र सूक्ष्मरन्ध्रसंभवान्नातिनिविडत्वम् । अतस्तत्र तत्प्रवेशनिष्क्रमौ । कथमन्यथोद्घाटितद्वारावस्थायामिव कान तदेकार्णवत्वम् ? सर्वथा नीरन्ध्रे तु प्रदेशे न तयोः संभवः। इति चेत्तर्हि शब्दप्येतत्समानम् । इत्यसिद्धो हेतुः। तृतीयस्तु विद्युल्लतोल्कादिभिरनैकान्तिकः । चतुर्थोपि तथैव; गन्धद्रव्यविशेपसूक्ष्मरजोधूमादिभिर्व्यभिचारात् । न हि गन्धद्रव्यादिकमपि नासायां निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोभिन्नश्मश्रुप्रेरकं दृश्यते । पञ्चमः पुनरसिद्धः। तथा पू'हि। न गगनगुणः शब्दः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवत् । इति सिद्धः पौगलिकत्वात्सामान्यविशेषात्मकः शब्द इति । ___यदि कहो कि “ किवाड आदिकोंमें छोटे छोटे छिद्र रहनेसे अत्यंत सघनता नही है इसलिये उनमें प्रवेशकरना तथा निकलना होसकता है। यदि ऐसा न हो तो किवाड खुले रहनेपर जैसा गन्ध निकलता है तैसा बंद होनेपर भी क्यो नही ? और जो • सर्वथा छिद्ररहित हो उसमें न तो प्रवेश ही करसकता है और न निकल ही सकता है" तो हम भी शब्दमे ऐसा ही खभाव * मानते है। अर्थात् जिसमें सूक्ष्म छिद्र हों उसीमें शब्दका घुसना निकलना होसकता है; अन्यत्र नही । इस प्रकार दूसरा | हेतु भी असिद्ध हुआ । यद्यपि उल्कापात अथवा विजलीआदिकोंके भी पहले पीछेके अवयव जिनसे वह वनै या नाश y होनेके अनन्तर जो रहै, नहीं दीखते है परंतु तो भी ये सब पौद्गलिक ही है । इसलिये तीसरा हेतु सदोष ( अनैकातिके ) है।। चौथा भी इसी प्रकार सदोप ( अनैकातिक या व्यभिचारी ) है । क्योंकि; अनेक प्रकारके गन्धद्रव्य या सूक्ष्म ( वारीक ) धूली अथवा धूमादिक भी मूर्तिक द्रव्यकी प्रेरणा नहीं करते है इसलिये यहां चौथा हेतु तो विद्यमान है परंतु पुद्गलपनेका अभावरूप १-२ जिस साध्यके साधनेकेलिये जो हेतु चोला जाय वह हेतु यदि उस साध्यके स्थानसे अन्यत्र भी रहे तो वह हेतु व्यभिचारी अथवा अनैकाकन्तिक कहा जाता है । यह हेस्वाभासका एक भेद है।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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