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________________ म्यादादम. ॥११॥ पयस्त्वपावकत्यादिना हि तयोविरुद्धधर्माध्यासो भेदश्च, द्रव्यत्वादिना पुनस्तद्विपरीतमिति । तथा च कथं न राजै.शा. सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते? इति । ततः सुष्ठुक्तं "वाच्यमेकमनेकरूपम्" इति। सामान्यएकता सदा संग्रहनयकी अपेक्षासे ही सर्वत्र जाननी चाहिये । क्योंकि, प्रमाणात्मक ज्ञानकी अपेक्षा तो प्रत्येक गक्किमें जैसे विसदृश परिणाम भिन्न भिन्न है तैसे उस समान परिणाममय सामान्यमें भी प्रतिव्यक्ति कथंचित् भेद ही है। इस प्रकार सामान्य तथा विशेषमें सर्वथा विरुद्धधर्मपनेका निराकरण होता है। यदि कथंचित् विरुद्धधर्मपना इष्ट हो तो हमारा मानना भी नही है । क्योंकि कथंचित् विरुद्ध धर्म तभी हो सकता है जब भेद भी कथंचित् ही हो, न कि सर्वथा भेद माननेपर। जल तथा अमिका दृष्टान्त भी परस्परका भेद सर्वथा सिद्ध नहीं कर सकता है। क्योकि; जल तथा अग्निमें भी विरुद्धधर्मपना तथा भेद कथंचित् ही माना गया है । जैसे जलपने तथा अग्निपनेसे ही जल तथा अग्निमें विरुद, धर्म तथा भेद है; द्रव्यत्वादिक मांझी अपेदा भेद नहीं है । इस प्रकार वस्तुका पूर्ण स्वरूप सामान्यविशेषात्मक क्यों न माना जाय ? इसलिये यह ठीक कहा G PLE कि" वान्यमेकमनेकरूपम् ।" अर्थात् वस्तु एकरूप भी है तथा अनेकरूप भी है। एवं वाचकमपि शब्दाख्यं द्वयात्मकम् (सामान्यविशेपात्मकम् ) । सर्वशब्दव्यक्तिप्वनुयायिशव्दत्वमेकम् । गाहगाईतीत्रमन्दोदात्तानुदात्तस्वरितादिविशेषभेदादनेकम् । शब्दस्य हि सामान्यविपात्मकत्वं पौगलिकत्वाव्यकमेव । तथा हि । पौद्गलिकः शब्दः, इन्द्रियार्थत्वाद्रूपादिवत् । इसी प्रकार वस्तुका वाचक शब्द भी एक तथा अनेकरूप अर्थात् सामान्यविशेपात्मक है। वाचकपनेसे सर्व व्यक्तियोम अनुयायी अर्थात् रहनेवाला होनेसे तो एकल्प है और शखका शन, शारशीका गन्न, तीव्र शब्द, मंद शब्द, उदात्त गन्द, जनुदात्त शब्द तथा सरित शब्द इत्यादि अतर्गत भेटोंकी अपेक्षा अनेकरूप भी है। पुद्गलकी पर्यायरूप होनेसे सामान्यविशेषात्मक-न सपना भी शब्दनें स्पष्ट है । अब पुगलपना कैसे है यह दिखाते है। इद्रियोंके गोचर होनेसे जैसे रूपरसादिक पुद्गलके अवसानिशेष है तैसे शब्द भी पुद्गलका अवसाविशेप है। ॥११२॥ | यचास्य पाद्गलिकत्वनिषेधाय स्पर्शशून्याश्रयत्वादतिनिविडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात् पूर्व पश्चाचावय-17 यानुपलब्धेः सून्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वागगनगुणत्वाच्चेति पञ्च हेतवो यौगैरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासाः । तथा हि ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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