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________________ स्थाद्वादम. ॥१०८|| वेदांती और सांख्य कहते है कि, सामान्य ही तत्त्व है; क्योंकि उस सामन्यसे भिन्नरूप ऐसे विशेप नही देखे जाते हैं । तथा सब एक है; क्योंकि विशेषरहितपनेसे सत् इसप्रकारके ज्ञाननामक जो अनुवृत्तिरूप लिङ्ग है उसके द्वारा उसकी सत्ताका अनुमान किया जाता है। तथा द्रव्यत्व ही तत्त्व है क्योंकि उस द्रव्यत्वसे भिन्न पदार्थरूप ऐसे धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव द्रव्य नहीं देखे जाते हैं। और भी विशेष यह है कि, जो सामान्यसे भिन्न ऐसे एक दूसरेकी परस्पर व्यावृत्ति करनेरूप विशेषोंकी कल्पना की जाती है, उन विशेषों में विशेषत्व धर्म रहता है वा नही रहता है। यदि इस प्रश्नके उत्तरमें कहा जावे कि, विशेषों में विशेषत्व नहीं रहता है । तो विशेषोंके खभावरहितताका प्रसग होता है । क्योंकि उन विशेषों में विशेषत्वरूप निजखरूपका ही अभाव है। यदि कहा जावे कि, विशेषोंमें विशेषत्व है तो वह विशेषत्व ही सामान्य है । क्योंकि समानोंका जो की |भाव है; वही सामान्य कहलाता है और विशेषरूपतासे उन सब सामान्योंके समानरूपतासे प्रतीति सिद्ध ही है। अपि च विशेषाणां व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वं लक्षणम् । व्यावृत्तिप्रत्यय एव च विचार्यमाणो न घटते । व्यावृत्तिर्हि १ विवक्षितपदार्थे इतरपदार्थप्रतिषेधः । विवक्षितपदार्थश्च स्वस्वरूपव्यवस्थापनमात्रपर्यवसायी कथं पदार्थान्तरप्रतिषेधे प्रगल्भते । न च स्वरूपसत्वादन्यत्तत्र किमपि येन तन्निपेधः प्रवर्तते । तत्र च व्यावृत्तौ क्रियमाणायां स्वात्मव्यतिरिक्ता विश्वत्रयवर्त्तिनोऽतीतवर्तमानाऽनागताः पदार्थास्तस्माद् व्यावर्तनीयाः । ते च नाज्ञातस्वरूपा व्यावर्तयितुं शक्याः। ततश्चैकस्यापि विशेषस्य परिज्ञाने प्रमातुः सर्वज्ञत्वं स्यात् । न चैतत्त्रातीतिक यौक्तिकं वा । व्यावृत्तिस्तु निषेधः। स चाऽभावरूपत्वात्तुच्छः कथं प्रतीतिगोचरमञ्चति खपुष्पवत् । और विशेषोंका व्यावृत्ति प्रत्ययका हेतुरूप लक्षण है। और जब विचार करते है तो विशेपोंमें व्यावृत्ति प्रत्यय ही सिद्ध नहीं | क होता है । क्योंकि, किसी विवक्षित पदार्थमें अन्यपदार्थका जो निषेध है, उसको व्यावृत्ति कहते है । और निजखरूपके स्थापन (सिद्ध करने ) मात्रमें ही समाप्त हो जानेवाला विवक्षित पदार्थ अन्य पदार्थोंके निषेध करनेमें कैसे प्रवृत्ति कर सकता है । और व खरूपसत्वके अर्थात् निजरूपमें विद्यमानताके सिवाय उस पदार्थमें अन्य कुछ भी नहीं है, जिससे कि, अन्यपदार्थके निषेधकी | प्रवृत्ति होवे । और उसमें यदि व्यावृत्ति की जावे, तो उस पदार्थके निजखरूपसे भिन्न ऐसे जो तीनलोकमें रहनेवाले भूत, al भविष्यत् और वर्तमानकाल सम्बन्धी सभी पदार्थ वे उस पदार्थसे भिन्न करने योग्य होवेंगे । और नहीं जाना गया है खरूप . ॥१०८॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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