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________________ अर्थ है । और इस उक्त प्रकारसे उत्सर्ग और अपवाद इन दोनोंका एक विषय सिद्ध होगया । भावार्थ-शास्त्रोंमें जिस कार्यक लिये उत्सर्ग है; उसीके लिये अपवाद भी है, यह जो हम (जैनी ) कहते हैं सो उक्त प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका । I भवतां चोत्सर्गोऽन्यार्थः, अपवादश्चान्यार्थः । “न हिंस्यात्सर्वभूतानि ।” इत्युत्सर्गो हि दुर्गतिनिषेधार्थः। अपवादस्तु वैदिकहिंसाविधिदेवताऽतिथिपितृप्रीतिसंपादनार्थः । अतश्च परस्परनिरपेक्षत्वे कथमुत्सर्गोऽपवादेन IN वाध्यते । तुल्यबलयोर्विरोध इति न्यायात् । भिन्नार्थत्वेऽपि तेन तद्बाधनेऽतिप्रसङ्गात् । न च वाच्यं वैदिकहिंसा विधिरपि स्वर्गहेतुतया दुर्गतिनिषेधार्थ एवेति । तस्योक्तयुक्त्या स्वर्गहेतुत्वनिर्लोठनात् । तमन्तरेणापि च प्रकारा|न्तरैरपि तत्सिद्धिभावात् । गत्यन्तराऽभावे ह्यपवादपक्षकक्षीकारः। और तुम्हारे मतमें तो उत्सर्ग दूसरे प्रयोजनके लिये है तथा अपवाद दूसरे कार्यके लिये है। जैसे-'सब जीवोंकी 1 हिंसा न करनी चाहिये' यह उत्सर्ग तो नरक आदि दुर्गतियोंमें न जानेके अर्थ है और वेदोक्त हिंसा करने रूप जो अपवाद | पाहै; वह देवता, अतिथि और पितृजनोंकी प्रीतिको सिद्ध करनेके लिये है । और इसप्रकार जब उत्सर्ग तथा अपवादके परस्पर निरपेक्षपना रहा तब अपवादसे उत्सर्गका बाध कैसे हो? क्योंकि-'दो समान बलवालोंका विरोध रहता है अर्थात् दो बराबरके | हों तो उनमें कोई किसीसे नहीं हटता है। ऐसा न्याय है। यदि उत्सर्ग तथा अपवादको भिन्न २ प्रयोजनकी साधकता होनेपर भी अपवादसे उत्सर्गका बाध मानोगे तो अतिप्रसंग होगा। 'वर्गका कारण होनेसे वेदोक्त हिंसाविधान भी दुर्गतिका नाश करनेके लिये ही है। इस कारण उत्सर्ग तथा अपवादके भिन्नार्थता नहीं है। यह भी तुमको न कहना चाहिये । क्योंकि उस वेदोक्त हिंसा विधिकी स्वर्गकी कारणताका पूर्वोक्त प्रकारसे खंडन कर चुके है । और उस वेदोक्त हिंसा करनेके विना जो IN||अन्य २ प्रकार है, उनसे भी खगेकी सिद्धि होती है। और जब दूसरा कोई उपाय न हो तभी अपवाद पक्षका खीकार होता है । नच वयमेव यागविधेः सुगतिहेतुत्वं नाङ्गीकुर्महे किंतु भवदाप्ता अपि । यदाह व्यासमहर्षिः-"पूजया विपुलं राज्य-मग्निकार्येण संपदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थ ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् । १।” अत्राग्निकार्यशब्दवाच्यस्य यागालादिविधेरुपायान्तरैपि लभ्यानां संपदामेव हेतुत्वं वदन्नाचार्यस्तस्य सुगतिहेतुत्वमर्थात्कदर्थितवानेव । तथा च स एव भावाग्निहोत्रं ज्ञानपालीत्यादिश्लोकैः स्थापितवान् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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