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________________ ही रक्षा करे, जो साद्वादम. ॥९ ॥ ही रक्षा करे, जो संयमकी रक्षा करनेपर मरण होता हो तो उस अवस्थामें संयमको छोड़कर आत्माकी रक्षा करे । क्योंकि राजेश ७ संयमका त्याग करनेसे जो दोप लगते है। उनसे वह मुनि रहित हो जाता है। कारण कि उन दोषोंकी प्रायश्चित्त आदिसे फिर शुद्धता हो जाती है। और ऐसी दशामें वह मुनि अविरति (व्रतरहित ) नहीं होता है। १।" यह आगम अपवादको ग्रहण करनेका उपदेश देता है। तथा आयुर्वेदेऽपि यमेवैकं रोगमधिकृत्य कस्यांचिदवस्थायां किंचिद्वस्त्वपथ्यं तदेवाऽवस्थान्तरे तत्रैव रोगे पथ्यम् । “उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालामयान् प्रति।यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य तु वर्जयेत् ।१।" इति वचनात् । यथा बलवदादेवरिणो लङ्घनं क्षीणधातोस्तु तद्विपर्ययः। एवं देशाद्यपेक्षया ज्वरिणोऽपि दधिपानादि योज्यम् । तथा च वैद्याः “कालाऽविरोधि निर्दिष्टं ज्वरादी लवनं हितम् । ऋतेऽनिलश्रमक्रोध-शोककामकृतज्वरान् । १।" एवं च यः पूर्वमपथ्यपरिहारो यश्च तत्रैवाऽवस्थान्तरे तस्यैव परिभोगः स खलुभयोरपि तस्यैव रोगस्य शमनार्थः । इति सिद्धमेकविपयत्वमुत्सर्गाऽपवादयोरिति । इसी प्रकार आयुर्वेद (वैद्यक शास्त्रों) में भी जिस ही एक रोगमें किसी अवस्थामें कोई वस्तु अपथ्य है। उसी रोगमें यू दूसरी अवस्थामें वही वस्तु पथ्य है । क्योंकि-"देशकालसंबंधी रोगोंमें वह अवस्था उत्पन्न होती है कि, जिसमें न करने योग्य कार्य तो करने योग्य हो जाता है और करने योग्य कार्य छोड़ दिया जाता है। १" ऐसा वैद्यकशास्त्रोंका, कथन है। जैसे-यदि ज्वररोगी बलआदिका धारक हो तो उसको लंघन कराया जाता है और यदि ज्वररोगी क्षीणवीर्य हो तो उसको लंघन न कराके प्रत्युत भोजन कराया जाता है । इसीप्रकार किसी देश आदिकी अपेक्षासे ज्वररोगीको भी दहीका पान कराना के आदि समझ लेना चाहिये अर्थात् किसी देशकी अपेक्षासे ज्वररोगीको दधिपानादि अपथ्य है और दूसरे देशकी अपेक्षा ज्वर ४ रोगीके लिये वेही दधिपानादि पथ्य है । सो ही वैद्य लोग कहते है कि-" वात, श्रम, क्रोध, शोक और काम, इनसे उत्पन्न हुए जो ज्वर है उनको छोडकर अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुए ज्वरों में कालका अविरोधी अर्थात् प्रीष्म शीत आदि ऋतुओंके अनुकूल ऐसा जो लंघन है; वह हितकारी (पथ्य) कहा गया है।" और इसप्रकारसे जो जिस रोगमें पहले अपथ्यका | त्याग है और उसी रोगमें दूसरी अवस्था होनेपर जो उस अपथ्यका ग्रहण है; वह दोनों ही अवस्थाओंमें उसी रोगकी शांतिके , ॥९ ॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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