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________________ वही प्रवृत्तिशब्दसे वाच्य ( कहने योग्य ) है अर्थात् उन नैयायिकोंने प्रवृत्तिशब्दसे मन, वचन तथा कायके वीस प्रकारके व्यापाररूप अर्थको ग्रहण किया है और राग आदि दोष मनके व्यापार रूप हैं । दुःखका तथा शब्द आदि जो इंद्रियोंके विषय है, उनका फलरूप प्रमेयमें ही अन्तर्भाव होता है अर्थात् दुःख और अर्थरूप जो दो प्रमेय है वे फलनामक प्रमेयमें ही शामिल N) होते है । क्योंकि ' प्रवृत्ति तथा दोषसे उत्पन्न हुआ ऐसा जो सुख दुःखरूप फल है; वह मुख्य फल है और उस सुखदुःखरूप फलका जो साधन है, वह गौणफल है।' ऐसा जयन्तका वचन है । प्रेत्यभाव और अपवर्ग ये दोनों आत्मा ही के दूसरे । परिणामरूप है अर्थात् आत्मा ही पूर्वपरिणामका त्याग करके इस प्रेत्यभाव तथा अपवर्गरूप उत्तर परिणाम ( अवस्था ) को धारण कर लेता है; अतः इन दोनोंको आत्मासे जुदे मानना उचित नहीं है । सो इस पूर्वोक्तप्रकारसे बारहप्रकारके प्रमेयोंका जो कथन ५ करना है, वह केवल वाग्जाल ( वचनोंके आडम्बर ) रूप है अर्थात् व्यर्थ है । और द्रव्य तथा पर्यायस्वरूप जो वस्तु है; वह प्रमेय है, यह जो हम जैनियोंने प्रमेयका लक्षण कहा है सो तो वहुत उत्तम है । क्योंकि;-यह लक्षण सबका सग्रह करनेवाला है। इस पूर्वोक्त प्रकारसे प्रेक्षावान पुरुषोंको संशय आदिके भी तत्त्वाभासपना उपेक्षित नहीं करना चाहिये । भावार्थ-जैसे नैयायिकोंके १६ पदार्थों से प्रमाण तथा प्रमेयको हमने उक्त प्रकारसे तत्त्वाभासरूप सिद्ध किया है। उसीप्रकार विचारवान पुरुष संशय आदि शेष चौदह १४ पदार्थों को भी तत्त्वाभासरूप समझ लेवें। यहा तो वे सब संशयादि पदार्थ जाने हुए है इस कारणसे तथा उनका यहा कथन करनेसे ग्रंथका विस्तार अधिक हो जानेके भयसे उनको विस्तृतरूपसे नहीं दिखाये है। क्योकि यहां पूर्णरूपसे न्यायशास्त्र ( नैयायिकोंके मत ) का अवतरण करना चाहिये अर्थात् संपूर्ण नैयायिकोंके मतको दिखलाना चाहिये । और अवतरण किया हुआ वह न्यायशास्त्र इस प्रथसे भिन्न एक दूसरे ग्रंथरूप हो जावे । इस कारण वह न्यायशास यहां न कहा हुआ ही रहो। 1 तदेवं प्रमाणादिषोडशपदार्थानामविशिष्टेऽपि तत्त्वाभासत्वे प्रकटकपटनाटकसूत्रधाराणां त्रयाणामेव छलजाति निग्रहस्थानानां मायोपदेशादितिपदेनोपक्षेपः कृतः । तत्र परस्य वदतोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघातश्छलम् । लतत्रिधा वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं चेति । तत्र साधारणे शब्द प्रयुक्ते वक्तुरभिप्रेतादर्थादर्थान्तरकल्प नया तन्निषेधो वाक्छलम्। यथा नवकम्बलोऽयं माणवक इति नूतनविवक्षया कथिते परः संख्यामारोप्य निषेधति कुतोऽस्य नव कम्बला इति । संभावनयातिप्रसङ्गिनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतुत्वारोपणेन तन्निषेधः सामान्य
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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