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________________ मा. स्थाद्वादमं. ॥४७॥ पूरा ( रच ) डाला है । अथवा ' सुसूत्रं ' यह क्रियाका विशेषण है, इस कारण भाव यह है कि-'सु' उत्तम है “सूत्र' पदाKo थोकी व्यवस्थाके रचनेका विज्ञान जिसमें ऐसा आसूत्रण किया है अर्थात् उन उन शास्त्रार्थों की रचना की है । क्योंकि " सूचना शू करनेवाला जो सूत्र शब्द है, वह ग्रन्थके अर्थमें, तंतुके अर्थमें और व्यवस्थाके अर्थमें व्यवहृत किया जाता है । " ऐसा अनेकार्थकोशका वचन है। अत्र सुसूत्रमिति विपरीतलक्षणयोपहासगर्भ प्रशंसावचनम् । यथा-"उपकृतं वहु तत्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवता चिरं।" इत्यादि । उपहसनीयता च युक्तिरिक्तत्वात्तदङ्गीकाराणाम् । तथा हि-अविशेषेण सद्बुद्धिवेद्येष्वपि सर्वपदार्थेषु द्रव्यादिष्वेव त्रिषु सत्तासम्बन्धः स्वीक्रियते न सामान्यादित्रये । इति महतीयं पश्यतोहरता। यतः परिभाव्यतां सत्ताशब्दस्य शब्दार्थः । अस्तीति सन् सतो भावः सत्ता अस्तित्वं तद्वस्तुस्वरूपं निर्विशेषमॐ शेषेष्वपि पदार्थेषु त्वयाप्युक्तम् । तत्किमिदमर्द्धजरतीयं यद्रव्यादित्रय एव सत्तायोगो नेतरत्र त्रय इति । 2 यहां पर 'सुसूत्र' यह विपरीतलक्षणासे उपहास है अन्तर्गत जिसके ऐसा प्रशसाका वचन है अर्थात् प्रथकारने 'सुसूत्रं ' इस वचनसे वैशेषिकोंकी प्रशसा न करके प्रत्युत उनकी हांसी की है। जैसे कि-" हे मित्र ? तुमने बहुत उपकार किया है, इस Y| विषयमें कहना ही क्या है। आपने बहुत सज्जनता प्रकट की है । इसी प्रकार करते हुए तुम सौ १०० वर्षतक सुखी रहो ।१।" हा इत्यादि । भावार्थ-जैसे इस श्लोकमें विपरीतलक्षणासे उपकार आदि शब्दोंसे अपकार आदिरूप अर्थको ग्रहण किया गया है; | उसी प्रकार 'सुसूत्रं ' इस शब्दसे उपहासरूप अर्थको लिया गया है। और वैशेषिकोंके मत युक्ति रहित है, इसकारण वे उपहा| सके योग्य है । अब आचार्य निम्नलिखित प्रकारसे वैशेषिकोंके मतका खंडन करके उसको युक्ति रहित ही दिखलाते है। समानतासे सभी पदार्थ सत् (है) इस प्रकारकी बुद्धिसे वेद्य (जानने योग्य) है, ऐसा मान करके भी जो तुम (वैशेषिक ) द्रव्य, गुण तथा कर्म, इन तीनोंमें ही सत्ताका योग मानते हो सो यह तुझारा बड़ा देखते २ हरण करना है अर्थात् प्रत्यक्षमें ठगना है। क्योंकि तुम 'सत्ता' इस शब्दके शब्दार्थका विचार करो। जो है, वह सत् कहलाता है, सत्का जो भाव है, वह सत्ता अर्थात् अस्तित्व है; और यह अस्तित्व वस्तुका स्वरूप है, इसकारण तुमने भी सभी पदार्थों में इसको समानरूपसे कहा है। तब फिर १. विदधदीरशमेव सदा सखे सुखितमास्व तत. शरदां शतम् । १ । इत्युत्तराई । २. स्त्री जरातुरा तारुण्यरमणीया च यथा मत्तेन प्रोच्यते | तत्तुल्यं भवद्वाक्यम् ॥ विषय से इस श्लोकमें विपरीतलक्षणास उपकार शेषिकोंके मत युक्ति रहित है, इसका ॥४७॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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