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________________ ७२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची और शिष्य इन्द्रनन्दी (द्वितीय) को 'दसिद्धान्तवाधौं विमलितहृदयः' प्रकट किया है। जिससे सिद्धांत विपयमे उनके कोई खास गुरु होने भी चाहियें। इसके सिवाय, ज्वालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने जिन दो आचार्यों के पाससे इस मन्त्रशास्त्रका अध्ययन किया है उनमे एक नाम गुणनन्दी' का भी है, जो सम्भवतः वे ही जान पड़ते हैं जो चन्द्रप्रभचरित के अनुसार अभयनन्दीके गुरु थे, और इस तरह इन्द्रनन्दीक दीक्षा-गुरु बप्पनन्दी, मन्त्रशास्त्रगुरु गुणनन्दी और सिद्घान्तशास्त्र-गुरु अभयनन्दी हो जाते है । यदि यह सब कल्पना ठीक है तो इससे नेमिचंद्रके गुरु इन्द्रनन्दीका ठीक पता चल जाता है, जिन्हें गोम्मटसार (क० ७८५) मे श्र तसागरका पारगामी लिखा है। नेमिचन्द्र ने अपने एक गुरु कनकनन्दि भी लिखे है और बतलाया है कि उन्होंने इन्द्रनन्दिके पाससे सकल सिद्धान्तको सुनकर सत्वस्थान' की रचना की है । यह सत्वस्थान प्रथ विस्तरसत्वत्रिभंगी' के नामसे श्राराके जैन-सिद्धान्त-भवनमें मौजूद है, जिसका मैने कई वर्ष हुए अपने निरीक्षणके समय नोट ले लिया था। पं० नाथूरामजी प्रेमीने इन कनकनन्दीको भी अभयनन्दीका शिष्य बतलाया है, परन्तु यह ठीक मालूम नहीं होता, क्योंकि कनकनन्दीके उक्त प्रथपरसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं होती-उसमे साफतौरपर इन्द्रनन्दी को ही गुरुरूपसे उल्लेखित किया है। इस सत्वस्थान ग्रन्थको नेमिचद्रने अपने गोम्मटसारक तीसरे सत्वस्थान अधिकारमे प्राय ज्यो-का-त्यों अपनाया है-आराकी उक्त प्रतिके अनुसार प्रज्ञानावामलोद्यत्पगुणगणभृतोत्कीर्ण विस्तीर्णमिद्धान्ताम्भोराशिस्त्रिलाक्त्राम्बुजवनविचरत्सद्यशोगजसः ॥ १ ॥ यवृत्तं दुरितारिसेन्यहनने चण्डासिधागयितम् चित्त यस्य शरत्सरत्मलिलवत्स्वच्छ सदा शीतलम् । कीर्ति शारदकौमुदी शशिभूनो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला स श्रीवासवनन्दिसन्मुनिपति' शिष्यस्तदीयो भवेत् ॥ २ ॥ शिष्यस्तस्य महात्मा चतुग्नुयोगेषु चतुरमतिविभवः । श्रीवप्पणंदिगुरुरिति बुधनिषेवितपदान्जः ॥ ३ ॥ लोके यस्य प्रसादादजनि मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी यस्याशास्तभमूर्धन्यति विमल यश:श्रीवितानो निबद्धः । कालास्ता येन पौगणिककविवृषभा द्योतितास्तत्पुराणव्याख्यानाद् बापण दिप्रथितगुणगणस्तस्य किं वय॑तेऽत्र ||४|| शिष्यस्तस्येन्द्रनदिविमलगुणगणोद्दामघामाभिराम: प्रजातीक्ष्णास्त्र-धारा-विदलित-बहलाऽज्ञानवल्लीवितानः । जैने सिद्धान्तवाधौ विमलितहृदयस्तेन सद्ग्रंथतोऽयम् हैलाचार्योंदितार्थो व्यरचि निरुपमो ज्वालिनीमत्रवादः ॥ ५ ॥ श्रष्टशतस्यै(स)कषष्ठिप्रमाणशकवत्सरेप्वतीतेषु । श्रीमान्यखेटकटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् ॥ १ कन्दर्पण ज्ञात तेनाऽपि स्वसुत निर्विशेषाय । • गुणनदिश्रीमुनये व्याख्यात मोपदेशं तत् ॥ २ ॥ पार्वे तयोद्वयोरपि तच्छास्त्रं अन्यतोऽर्थतश्चापि । मुनिनेन्द्रनन्दिनाम्ना सम्यगादितं विशेषेण ॥ २५ ॥ २ वरइदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयल-सिद्धंत । सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तठाणं समुद्दिट्ठ ॥क०३६६॥ ३ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० २६६ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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