SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची और इसलिये जब तक कोई दूसरा स्पष्ट प्रमाण सामने न आवे तब तक इन्हें देवसेनका शिष्य मानना अनुचित न होगा। ३८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-यह त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसार जैसे ग्रंथोंकी तरह करणानुयोग-विपयका ग्रंथ है। इसमे मध्यलोकके मध्यवर्ती जम्बूद्वीपका कालादि-विभागके साथ मुख्यतासे वर्णन है और वह वर्णन प्रायःजम्बूवापक भरत, ऐरावन, महाविदेहक्षेत्रो, हिमवान आदि पर्वतों, गगा-सिन्ध्वादि नदियो, पद्म-महापद्मादि द्रढों, लवणादि समुद्रों तथा अन्य बाह्य-प्रदेशों, कालके अवसर्पिणी-उत्सपिणी आदि भेद-प्रभेदो, उनमे होनेवाले परिवर्तनों और ज्योतिष्पटलादिसे सम्बन्ध रखता है। साथ ही, लौकिक-अलौकिक गणित, क्षेत्रादिकी पैमाइश और प्रमाणादिक कथनोको भी साथमे लिय हुए है । संक्षेपम इस पुरातन भूगोल और खगोल-विषयक ग्रंथ समझना चाहिये। इसमें १३ उद्देश अथवा अधिकार है और गाथासख्या प्रायः २४२७ पाई जाती है । यह अथ भी अभी तक प्रकाशित ( मुद्रित ) नहीं हुआ है।) ___ इस ग्रंथके कर्ता श्री पद्मनन्दि प्राचार्य हैं, जो बलनन्दिके शिष्य और वीरनन्दिके प्रशिष्य थे, जिन्होने श्रीविजय गुरुके पाससे सुपरिशुद्ध प्रागमको सुनकर तथा जिनवचनविनिर्गत अमृतभूत अर्थपदको धारण करके उन्हीं के माहात्म्य अथवा प्रसादसे यह प्रथ पोरियात्रदेशके वारानगरमे रहते हुए, उस नगरके स्वामी शक्तिभूपाल अथवा शान्तिभूपालके समयमे, उन श्रीनन्दि गुरुके निमित्त सक्षेपसे रचा है जो सकलचन्द्रके शिष्य और माघनन्दि गुरुक प्रशिष्य थे अथवा सकलचन्द्रके शिष्य न होकर माघनन्दीके शिष्य थे-शिष्य नहीं । ऐसा ग्रंथके अन्तिमभाग अर्थात् उसकी प्रशस्तिपरसे जाना जाता है, जो इस प्रकार है:'णाणा-गरवइ-महिदो विगयभो संगभंगउम्मुक्को । सम्मद्दसणसुद्धो संजम-तव-सील-संपुण्णा ॥ १४३ ॥ जिणवर-वयण-विणिग्गय-परमागमदेसओ महासत्तो । सिरिणिलओ गुणसहिओ सिरिविजयगुरु त्ति विक्खाओ ॥ १४४॥ . सोऊण तस्स पासे जिणवयण विणिग्गयं अमदभूदं । रइदं किचिदुद्देसे अत्थपदं तह व लद्भुण ॥ १४५ ॥ अह तिरिय-उड्ढ लोएसु तेसु जे होति बहु वियप्पा दु । सिरिविजयस्स महप्पा ते सच्चे परिणदा किंचि ॥ १५३ ॥ गय-राय-दोस-मोहो सुद-सायर-पारओ मइ-पगब्भो । तव-संजम-संपएणो विक्खायो माघणंदिगुरू ॥ १५४ ॥ तस्सेव य वर्रामस्सा सिद्धतमहोवहिम्मि धुयकलुमो । णणियमसीलकलिदो गुणउत्तो सयल चंदगुरू ॥ १५५ ॥ /१ थामेर (जयपुर) की वि० सवत् १५१८ की प्रतिमें सकल चन्द्र के नामोल्लेखवाली गाथा (नं० १५५) नहीं है. ऐमा १० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामंदिरको मिलान करनेपर मालूम हुश्रा है । यदि वह वस्तुतः ग्रन्थ का अङ्ग नहीं है तो श्रीनन्दीको माघनन्दीका प्रशिष्य न समझकर शिष्य समझना चाहिये।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy