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________________ प्रस्तावना ६३ बाद, जोकि देवसेनके नयचक्रकी पूर्वोद्धत अन्तिम गाथा ( नं० ८७) है, एक गाथा निम्न प्रकारसे दी हुई है, जिसमें बतलाया गया है कि - ' दोहाथ को सुनकर शुभंकर अथवा शंकर हँसकर बोला कि दोहोंमें अर्थ शोभित नहीं होता, उसे गाथाओं में गूंथकर कहो सुणिऊण दोहरत्थं सिभ्धं इसिऊण सुहंकरो भगइ | एत्थ ण सोहइ अत्थो गाहावंघेण तं भगह ॥ ४१७ ॥ इसके अनन्तर 'दारिय- दुरणय-दयं' इत्यादि तीन गाथाओं में देवसेनके नयचक्रकी प्रशसाके साथ उसे नमस्कार करनेकी प्रेरणा की गई है, इससे यह गाथा, जिसमें ग्रथ रचने की प्रेरणाका उल्लेख है, पूर्वापर गाथाओ के साथ कुछ सम्बन्ध रखती हुई मालूम नहीं होती । इस तरह नयचक्रको प्रशंसात्मक उक्त तीन गाथाओं के बाद निम्न गाथा पाई जाती है जिसका उन तीन गाथाओं तथा अन्तकी (नं० ४२२) 'दुसमीरणेण पोयं' नामकी उस गाथाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठता, जिसमें प्राचीन नयचक्रके नष्ट होजानेपर देवसेनके द्वारा दूसरे नयचक्र रचे जानेका उल्लेख है -: दव्यसहावपयासं दोहयबंधे श्रसि जं दिव ं । गाहावंधेण पुणो रइयं माहल्लदेवेण ।। ४२१ ॥ क्योंकि इसमे बतलाया है कि - 'द्रव्यस्वभावप्रकाश' नामका कोई ग्रंथ पहले से दोहा छंदमें मौजूद था उसे माहल्ल अथवा माहिल्लदेवने गाथाछदमे परिवर्तित करके पुनः रचा है। इस गाथाकी उक्त प्रेरणात्मक गाथा नं० ४१७ के साथ तो संगति बैठती है परन्तु आगे पाछेकी गाथाओंने ग्रंथके सन्दर्भमे गड़बड़ी उपस्थित कर रक्खी है । और इससे ऐसा मालूम होता है कि इन दोनों (नं० ४१७, ४२१) के पूर्वापर सन्बन्धकी कुछ गाथाएँ नष्ट हो गई हैं और दूसरी गाथाएँ उनके स्थानपर आ घुसी हैं। अतः इस ग्रंथकी प्राचीन प्रतियों की खोज होकर ग्रन्थसन्दर्भको ठीक एव सुव्यवस्थित किये जानेकी जरूरत है । उक्त गाथा नं० ४०१ परसे प्रथकर्ताका नाम 'माहल्लदेव' उपलब्ध होता है; परन्तु ( पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपनी ग्रंथपरिचयात्मक प्रस्तावनायें तथा 'जैनसाहित्य और इतिहास' अन्तर्गत 'देवसेन और नयचक्र' नामक लेख में भी सर्वत्र ग्रंथकर्ताका नाम 'माइल्लघवल' दिया है | मालूम नहीं इस नामकी उपलब्धि उन्हें कहाँसे हुई है ? क्योंकि इस पाठान्तर का उनके द्वारा कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया। हो सकता है कि कारंजाकी प्रतिमे यह पाठ हो, क्योंकि अपने उक्त लेखमे प्रेमीजोने एक जगह यह सूचित किया है कि 'कार जाकी प्रतिमें 'माइल्लघवलेण' पर 'देवसेन शिष्येण' टिप्पण भी है । अस्तु, ग्रंथकार संभवतः उन्हीं देवसेनके शिष्य जान पडते हैं जिनके नयचक्रको इन्होने अपने इस प्रथमें समाविष्ट किया हैं, जिन्हें "सियसद्द मुरणयदुराय' नामकी गाथा न० ४२० में भारी प्रशंसाके साथ नयचक्रकार बतलाया है और 'गुरु' लिखा है और जिसका समर्थन कारंजा प्रतिके उक्त टिप्पणसे भी होता है । इसके सिवाय, प्रमीजीने 'दुममीरणेण पोयं पेरिय' नामकी गाथा न० ४२२ का एक दूसरा पाठ मोरेनाकी प्रतिका निम्न प्रकार से दिया है, जिस का पूर्वार्ध बहुत अशुद्ध है दसमीर पोयमि (नि) बाय पा (या) ता () सिरिदेवसेणजोईणं । सिं पापमाए उवलद्धं समगतच्चेण || और इस परसे यह कल्पना की है कि 'माइल्लघवलका देवसेनसूरिसे कुछ निकट का गुरु-शिष्य सम्बन्ध था, जो उपर्युक्त अन्य कारणोंकी मौजूदगी में ठीक हो सकता है ।)
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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