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________________ ५६ पुरातन जैनवाक्य सूची उधृत किया है और अनुवादित करके भी रक्खा है । ऐसी स्थिति में तिलोयपण्णत्ती में पाये जाने वाले गद्यांशोंके विपयमे यह कल्पना करना कि वे घवलापुर से उद्धृत किये गये हैं, समुचित नहीं है और न शास्त्रीजीके द्वारा प्रस्तुत किये गये गद्यांश से इस विपर्यमे कोई सहायता मिलती है; क्योंकि उस गद्यांशका तिलोय पणत्तिकारके द्वारा उदधृत किया जाना सिद्ध नहीं है— वह बादको किसीके द्वारा प्रक्षित हुआ जान पड़ता है 1 मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि यह इतना ही गद्यांश प्रक्षिप्त नहीं है बल्कि इसके पूर्वका " एतो चंदारण सपरिवारारणमारण्यरण विहारणं वत्तइस्लामो " से लेकर "एदम्हादो चेव सुत्तादो” तकका श्रंश और उत्तरवर्ती "तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति" से लेकर “तं चेदं १६५५३६१ ।" तकका अंश, जो 'चंदस्य सदसहस्स' नामकी गाथाके पूर्ववर्ती है, वह सब प्रक्षिप्त है । और इसका प्रबल प्रमाण मूलग्रन्थपर से ही उपलब्ध होता है। मूलग्रन्थ में सातवें महाधिकारका प्रारम्भ करते हुए पहली गाथामें मंगलाचरण और ज्योतितकप्रज्ञप्तिके कथनकी प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर उत्तरवर्ती तीन गाथाश्रमें ज्योतिपियो के निवासक्षेत्र आदि १७ महाधिकारों के नाम दिये हैं जो इस ज्योति लोकप्राप्ति नामक महा धिकारके अंग हैं। वे तीनो गाथाऍ इस प्रकार हैं: 1 • जो सिय- वासखिदी भेदो संखा तहेव विष्णासो । परिमाणं चरचारो अचरसरुवाणि आऊ य ॥२॥ आहारो उस्सासो उच्छेहो महिणाणसत्तीओ । जीवाणं उप्पत्ती मरणाई एक्कसमयम्मि ||३ ॥ उगवं धरणभावं दंसणगहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादिपवणामहियारा सत्तरसिमाए ॥ ४ ॥ इन गाथाओके बाद निवासक्षेत्र, भेद संख्या, विन्यास, परिमाण, चरचार अचरस्वरूप और आयु नामके आठ अधिकारोंका क्रमशः वर्णन दिया है—–शेष अधिकार के विषय में लिख दिया है कि उनका वर्णन भावनलोकके वर्णनके समान कहना चाहिये ('भावणलोए व्व वक्तव्व') — और जिस अधिकारका वणन जहाँ समाप्त हुआ है वहाँ उस की सूचना कर दी है। सूचनाके वे वाक्य इस प्रकार हैं : “णिवासखेत्तं सम्मत्तं । भेदो सम्मत्तो । संखा सम्मत्ता । विरणासं सम्मत्तं । परिमाणं सम्मत्तं । एवं चरगिहाणं चारो सम्मत्तो | एवं अचरजोइसगणपरूवणा सम्मता । श्राऊ सम्मत्ता ।" अचर ज्योतिषगणकी प्ररूपणाविषयक वें अधिकारकी समाप्तिके बाद ही 'एतो 'चढाण’ से लेकर ‘त चेदं १६५५३६१' तकका वह सब गद्यांश है, जिसकी ऊपर सूचना की गई है । 'आयु' अधिकार के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । आयुका अधिकार उक्त गद्यांशके अनन्तर ''चदस्य सदसहस्सं इस गाथासे प्रारम्भ होता है और अगली गाथापर समाप्त होजाता है। ऐसी हालत मे उक्त गद्यांश मूल ग्रंथके साथ सम्बद्ध न होकर साफ तौर से प्रक्षिप्त जान पड़ता है। उसका आदिका भाग 'एत्तो चंदाण' से लेकर 'तदो ण एत्थ संपदायविरोधो कायव्वो त्ति' तक तो धवला प्रथम खंडके स्पर्शनानुयोगद्वारमे, थोड़े से शब्दभेदके साथ प्रायः ज्योंका त्यो पाया जाता है और इसलिये यह उसपर से उधृत हो सकता है परन्तु अन्तका भाग - ' एदेण विहाणेण परूविदगच्छं विरलिय रूवं पडि चत्तारि रूवाणि दादूण अण्णोष्णभत्थे" के अनन्तरका - धवलाके अगले गद्यांशके साथ कोई मेल
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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