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________________ प्रस्तावना गुरुणाऽर्धेऽग्रिमे भृरिवक्तव्ये संप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याऽल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन पूरितः ॥३६॥ परन्तु वर्तमान तिलोयपएणत्तीमें तो वीरसेनका कहीं नामोल्लेख भी नहीं है-ग्रंथ के मंगलाचरण तकमे भी उनका स्मरण नहीं किया गया । यदि वोरसेनके सकेत अथवा आदेशादिके अनुसार निनसेनके द्वारा वर्तमान तिलोयपएणत्तीका संकलनादि कार्य हुआ होता तो वे ग्रंथके आदि या अन्त में किसी न किसी रूपसे उसकी सूचना जरूर करते तथा अपने गुरुका नाम भी उसमे ज़रूर प्रकट करते । और यदि कोई दूसरी तिलोयपएणत्ती उनकी तिलोयपएणत्तीका आधार होती तो वे अपनी पद्धति और परिणतिके अनुसार उसका और उसके रचयिताका स्मरण भी ग्रंथकी आदिमे उसी तरह करते जिस तरह कि महापुराणकी आदिमे 'कविपरमेश्वर' और उनके 'वागर्थसंग्रह' पुराणका किया है, जो कि उनके महापुराण का मूलाधार रहा है। परन्तु वर्तमान तिलोयपएणत्तीमे ऐसा कुछ भी नहीं है, और इसलिये उसे उक्त जिनसेनकी कृति बतलाना और उन्हीं के द्वारा उक्त गद्याशका उद्धृत किया जाना प्रतिपादित करना किसी तरह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। दूसरे भी किसी विद्वान् आचार्य के साथ जिन्हें वर्तमान तिलोयपएणत्तीका कर्ता बतलाया जाय, उक्त भूलभरे गद्यांशके उद्धरणकी बात संगत नहीं बैठती, क्योंकि तिलोयपण्णत्तीकी मौलिक रचना इतनी प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है कि उसमें मूलकार-द्वारा ऐसे सदोष उद्धरणकी कल्पना नहीं की जा सकती । और इसलिये उक्त गद्यांश वादको किमीके द्वारा घवला आदि परसे प्रक्षिप्त किया हुआ जान पड़ता है। और भी कुछ गद्यांश ऐसे हो सकते हैं जो धवलापरसे प्रक्षिप्त किये गये हों, परन्तु जिन गद्यांशोंकी तरफ शास्त्रीजीने फुटनोटमें संकेत किया है वे तिलोयपएणत्तोमें धवलापरसे उद्धृत किये गये मालूम नहीं होते; बल्कि धवलामें तिलोयपएणत्तीपरसे उद्धृत जान पड़ते हैं । क्योंकि तिलोयपण्णत्ती में गद्यांशोंके पहले जो एक प्रतिज्ञात्मक गाथा पाई जाती है वह इस प्रकार है: बादवरुद्धक्खेत्ते चिंदफलं तह य अपुढवीए । सुद्धायासखिदीणं लवमेत्तं वत्तइस्सामो ॥ २८२॥ इसमें वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रो, आठ पृथिवियों और शुद्ध आकाशभूमियोंका घनफल बतलानेकी प्रतिज्ञा की गई है और उस घनफलका 'लवमेत्त (लचमात्र) १ विशेषणके द्वारा बहुन सक्षेपमे ही कहने की सूचना की गई है । तदनुसार तीनों घनफलोंका क्रमशः गद्यमे कथन किया गया है और यह कथन मुद्रित प्रतिमे पृष्ठ ४३ से ५० तक पाया जाता है। धवला (पृ० ५१ से ५५) में इस कथनका पहला भाग संपहि (सपदि) से लेकर 'जगपदरं होदि' तक प्रायः ज्याका त्यों उपलब्ध है परन्तु शेष भाग, जो आठ पृथिवियो आदिके घनफलसे सम्बन्ध रखता है, उपलब्ध नहीं है । और इससे वह तिलोयपएणत्तापरसे उद्धृत जान पड़ता है-खासकर उस हालतमे जब कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती मौजूद थी और उन्होंने अनेक विवादग्रस्त स्थलोंपर उसके वाक्योंको बड़े गौरवके साथ प्रमाणमे उपस्थित किया है तथा उसके कितने ही दूमरे वाक्योंको भी विना नामोल्लेखके १ तिलोयपएत्तिकारको जहाँ विस्तारसे कथन करनेकी इच्छा अथवा अावश्यकता हुई है वहा उन्होंने वैसी सूचना कर दी है, जैसाकि प्रथम अधिकारमें लोकके आकारादिका संक्षेपसे वर्णन करनेके अनन्तर 'वित्थररुहबोहत्थ वोच्छ गाणावियप्पे वि (७४) इस वाक्यके द्वारा विस्ताररुचिवाले प्रतिपाद्योंको लक्ष्य करके उन्होंने, विस्तारसे कथनकी प्रतिज्ञा की है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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