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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची किन्तु वहाँ यह नहीं बतलाया कि कहॉकी है। मालूम पड़ता है कि इसीका उक्त गाथांश परिवतित रूप है। यदि यह अनुमान ठीक है तो कहना होगा कि तिलोयपएणत्तिमे पूरी गाथा इस प्रकार रही होगी। जो कुछ भा हो पर इतना सच है कि वर्तमान तिलोयपएणत्ति उससे भिन्न है।" (५) "तिलोयपएणत्तिमे यत्र तत्र गद्य भाग भी पाया जाता है । इसका बहुत कुछ अंश धवलामे आये हुए इस विषयके गद्य भागसे मिलता हुआ है । अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि इस गद्य भागका पूर्ववर्ती लेखक कौन रहा होगा। इस शकाके दूर करनेके लिये हम एक ऐसा गद्याश उपस्थित करते हैं जिससे इसका निर्णय करनेमे बड़ी सहायता मिलती है। वह इस प्रकार है : एसा तप्पाअोगासंखेजरूवाहियजंवृदीवछेदणयसहिददीवसायररूपमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अएणाइरिओवएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपएणत्तिमुत्ताणुनारिजादिसियदेवभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तिवलेण पयदगच्छमाहणट्ठमम्हेहि परूविदा ।' यह गद्याश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पृ० १५७ का है। तिलोयपएणत्तिमे यह उसो प्रकार पाया जाता है । अन्तर केवल इतना है कि वहाँ 'अम्हेहि' के स्थानमे 'एसा परूवणा' पाठ है । पर विचार करनेसे यह पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, क्योकि 'एसा' पद गद्यके प्रारभमे ही आया है अतः पुनः उसी पदके देनेकी आवश्यकता नहीं रहती । परिक्खाविही' यह पद विशेष्य है, अतः 'परूवणा' पद भी निष्फल हो जाता है । "(गद्यांशका भाव देनेके अनन्तर) इस गद्यभागसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गद्यभाग में एक राजुके जितने अर्धछेद बतलाये है वे तिलोयपएणत्तिमे नहीं बतलाये गये हैं किन्तु तिलोयपएणत्तिमे जो ज्योतिपी देवोक भागहारका कथन करनेवाला सूत्र है उसके बलसे सिद्ध किये गए है । अब यदि यह गद्यभाग तिलोयपएणत्तिका होता तो उसीमें 'तिलोलपण्णत्तिसुत्राणुसारि' पद देनेकी और उसीके किसी एक सूत्रके बलपर राजुकी चालू मान्यतासे संख्यात अधिक अर्धछेद सिद्ध करनेकी क्या आवश्यकता थी । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि यह गद्यभाग धवलासे तिलोयपएणत्तिमें लिया गया है। नहीं तो वीरसेन स्वामी जोर देकर हमने यह परीक्षा विधि' कही है। यह न कहते। कोई भी मनुष्य अपनी युक्तिको ही अपनी कहता है। उक्त गद्य भागमे आया हुआ 'अम्हेहि' पद साफ बतला रहा है कि यह युक्ति वीरसेनस्वामीको है । इस प्रकार इस गद्यभागसे भो यहो सिद्ध होता है कि वर्तमान तिलोयपएणत्तिको रचना धवलाके अनन्तर हुई है ।") इन पांचों प्रमाणोंको देकर शास्त्रीजीने बतलाया है कि धवलाकी समाप्ति चूंकि शक संवत् ७३८ में हुई थी इसलिये वर्तमान तिलोयपएणत्ति उससे पहलेकी बनी हुई नहीं है और चूंकि त्रिलोकसार इसी तिलोयपएणत्तीके आधार पर बना हुआ है और उसके रचयिता नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती शक सवत् १०० के लगभग हुए हैं इसलिये यह ग्रन्थ शक स० १०० के बादका बना हुआ नहीं है,फलतः इस तिलोयपण्णत्तिकी रचना शक सं० ७१८ से लेकर ६०० के मध्य में हुई है । अतः इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालतमे नहीं हो सकते ।" इसके रचयिता संभवतः वीरसेनके शिष्य जिनसेन हैं-वे ही होने चाहिये, क्योंकि एक तो.वोरसेन स्वामोके साहित्य-कार्यसे वे अच्छी तरह परिचित थे । तथा उनके शेप कार्यको इन्होंने पूरा भी किया है। संभव है उन शेष कार्यो में उस समयकी आवश्यकतानुसार तिलोयपएणत्तिका संकलन भी एक कार्य हो । दूसरे वीरसेनस्वामीने प्राचीन साहित्यके संकलन, संशोधन और सम्पादनको जो दिशा निश्चित् को थो वर्तमान तिलोयपण्णत्तिका WAE
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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