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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सब टलानेके सिवाय और कुछ भी अर्थ रखता हुआ मालूम नहीं होता । मैं पूछता हू क्या ग्रंथमें 'तिर्थक लोकविभाग' नामका छठा अध्याय होनेसे ही उसका यह अर्थ हो जाता है कि 'उसमे तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तारके साथ वर्णन है ? यदि नहीं तो ऐसे समाधानसे क्या नतीजा ? ओर वह टलाने की बात नहीं तो और क्या है ? जान पड़ता है प्रेमीजी अपने उक्त समाधानकी गहराईको समझते थे-जानते थे कि वह सब एक प्रकारको खानापूरी ही है-और शायद यह भी अनुभव करते थे कि संस्कृत लोकविभागमे तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तार नहीं है, और इसलिये उन्होंने परिशिष्टमें ही; एक कदम आगे, समाधानका एक दूसरा रूप अख्तियार किया है जो सब कल्पनात्मक, सन्देहात्मक एव अनिर्णयात्मक है और वह इस प्रकार है: "ऐसा मालूम होता है कि सर्वनन्दिका प्राकृत लोकविभाग वड़ा होगा । सिंहसुरिने उसका संक्षेप किया है। 'व्याख्यास्यामि समासेन' पदसे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं। इसके सिवाय, आगे शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' से भी यही ध्वनित होता है-सग्रहका भो एक अर्थ सक्षेप होता है। जैसे गोम्मटसंगहसुत्त आदि । इसलिये यदि सस्कृत लोकविभागमे तिर्यचोक १४ भेदोंका विस्तार नहीं, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थमे रहा होगा, संस्कृतमे संक्षेप करनेके कारण नहीं लिखा गया ।" ___ इस समाधानके द्वारा प्रेमीजीने, संस्कृत लोकविभागमें तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तार-कथन न होनेकी हालत मे, अपने बचावको और नियमसारका उक्त गाथामे सर्वनन्दीके लोकविभाग-विषयक उल्लेखकी अपनी धारणाको बनाये रखने तथा दूसरों पर लादे रखनेकी एक सूरत निकाली है । परन्तु प्रेमीजी जब स्वयं अपने लेखमे लिखते हैं कि "उपलब्ध 'लोकविभाग' जो कि सस्कृतमे है बहुत प्राचीन नहीं है । प्राचीनताले उस्का इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् ३८० के बने हुए ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है और इस तरह संस्कृतलोकवि भागको सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका अनुवादित रूप स्वीकार करते हैं । अओर यह बात मै अपने लेखमे पहले भी बतला चुका हूँ कि संस्कृत लोकविभागके अन्त मे ग्रन्थको श्लोकसंख्याका सूचक जो पद्य है और जिसमें श्लोकसख्याका परिमाण १५३६ दिया है वह प्राकृत लोकविभागकी संख्याका ही सूचक है और उसीके पद्यका अनुवादित रूप है, अन्यथा उपलब्ध लोकविभागकी श्लोकसंख्या २०३० क करीव पाई जाती है और उसमे जो ५०० श्लोक जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन 'उक्त च' पद्योंका परिमाण है जो दूसरे ग्रंथोंपरसे किसी तरह उद्धृत होकर रक्खे गये हैं । तब किस आधार पर उक्त प्राकृत लोकविभागको 'बड़ा बतलाया जाता है ? और किस आधार पर यह कल्पना की जाती है कि 'व्याख्यास्यामि समासेन' इस वाक्यके द्वारा सिंहसूरि स्वयं अपने प्रथ-निर्माणकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं और वह सर्वनन्दीकी ग्रंथनिर्माण-प्रतिज्ञाका अनुवादित रूप नहीं है ? इसी तरह 'शास्त्रस्य संग्रह स्त्विदं' यह वाक्य भी सवेनन्दीके वाक्यका अनुवादित रूप नहीं है ? जब सिंहसूरि स्वतंत्र रूपसे किसी ग्रन्थका निर्माण अथवा स ग्रह नहीं कर रहे हैं और न किसी ग्रंथकी व्याख्या ही कर रहे हैं बल्कि एक प्राचीन ग्रथका भाषाके परिवर्तन द्वारा (भाषायाः परिवर्तनेन) अनुवादमात्र कर रहे हैं तब उनके द्वारा 'व्याख्यास्यामि समासेन' जैसा प्रतिज्ञावाक्य नहीं बन सकता और न श्लोक-संख्याको साथमे देता हुआ 'शास्त्रस्य संग्रह स्त्विदं' वाक्य ही बन सकता है। इससे दोनों वाक्य मूलकार सर्वनन्दीके ही वाक्योंके अनुवादितरूप जान पड़ते हैं । सिंहसूरका इस ग्रंथकी रचनासे कवल इतना ही सम्बन्ध है कि वे भाषाके परिवर्तन द्वारा इसके रचयिता हैं-विषयके संकलनादिद्वारा नहीं जैसा कि उन्होंने अन्तके चार पद्योंमेसे प्रथम पद्यमें सूचित किया है और ऐसा ही उनकी ग्रंथ-प्रकृतिपरसे जाना जाता है । मालूम होता है प्रेमीजीने इन सब बातों पर कोई
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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