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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची परन्तु अपने इस संभावित समाधानकी कल्पनाके समर्थनमे आपने एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया, जिससे यह मालूम होता कि श्रीपुरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दपुरान्वयका भी कहीं उल्लेख आया है अथवा यह मालूम होता कि जहाँ पद्मनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दका उल्लेख आया है वहाँ उमके पूर्व कुन्दकुन्दान्वयका भी उल्लेख आया है और उसी कुन्दकुन्दान्वयमे उन पद्मनन्दि-कुन्दकुन्दको बतलाया है, जिससे ताम्रपत्रके 'कुन्दकुन्दान्वय' का अर्थ 'कुन्दकुन्दपुरान्वय' कर लिया जाता । बिना समर्थनके कोरी कल्पनासे काम नहीं चल सकता । वास्तवमे कुन्दकुन्दपुरके नामसे किसी अन्वयके प्रतिष्ठित अथवा प्रचलित होनेका जैनसाहित्यमे कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। प्रत्युत इसके, कुन्दकुन्दाचार्यके अन्वयके प्रतिष्ठित और प्रचलित होने के सैकड़ो उदाहरण शिलालेखों तथा ग्रथप्रशस्तियोंमे उपलब्ध होते हैं और वह देशादिके भेदसे 'इंगलेश्वर'' आदि अनेक शाखाओं (बलियों) मे विभक्त रहा है । और जहाँ कहीं कुन्दकुन्दके पूर्वकी गुरुपरम्पराका कुछ उल्लेख देखनेमे आता है वहाँ उन्हें गौतम गणघरकी सन्ततिमे अथवा अतकेवली भद्रवाहुके शिष्य चन्द्रगुप्त के अन्वय (वश) मे बतलाया है । जिनका कौएडकुन्दपुर के साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। श्रीकन्दकन्द मूलसघ (नन्दिसघ भी जिसका नामान्तर है) के अग्रणी गणो थे और देशीगणेका उनक अन्वयसे खास सम्बन्ध रहा है, ऐसा श्रवणवेल्गोलके ५५(६६) नम्बरके शिलालेखके निम्नवाक्योसे जाना जाता है: श्रीमतो बर्द्धमानस्य बर्द्धमानस्य शासने । श्रीकोएड कुन्दनामाऽभून्मूलसवाग्रणी गणी ॥३॥ तस्याऽन्वयेऽजनि ख्याते.....'देशिके गणे । गुणी देवेन्द्रसैद्धान्तदेवो देवेन्द्र-बन्दितः ॥४॥ (और इसलिये मर्कराके ताम्रपत्रमे देशागण के साथ जो कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख है वह श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके अन्वयका ही उल्लेख है कुन्दकुन्दपुरान्वयका नहीं) और इससे प्रेमीजीकी उक्त कल्पनामे कुछ भी सार मालूम नहीं होता। इसके सिवाय, प्रेमोजीने बोधपाहुड-गाथा-सम्बन्धी मेरे दूसरे प्रमाणका कोई विरोध नहीं किया, जिससे वह स्वीकृत जान पड़ता है अथवा उसका विरोध अशक्य प्रतीत होता है । दोनो ही अवस्थाओंमे कोण्डकुन्दपुरान्वयकी उक्त कल्पनासे क्या नतीजा ? क्या वह कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धी अपनी धारणाको, प्रबलतर बाधाके उपस्थित होने पर भी, जीवित रखने आदिके उद्देश्यसे की गई है ? कुछ समझमें नहीं आता ।।। नियमसारकी उक्त गाथा में प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदको लेकर मैंने जो उपर्युक्त दो आपत्तियों की थीं उनका भी कोई समुचित समाधान प्रेमीजीने नहीं किया है। उन्होने अपने उक्त मूल लेखमें तो प्रायः इतना ही कह कर छोड़ दिया है कि "बहुवचनका प्रयोग इसलिये भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभागके अनेक विभागों या अध्यायोंमे उक्त भेद देखने चाहियें।' परन्तु ग्रंथकार कुन्दकुन्दाचार्यका यदि ऐसा अभिप्राय होता तो वे 'लोयविभाग-विभागेसु' ऐसा पद रखते, तभी उक्त आशय घटित हो सकता था, परन्तु ऐसा नहीं है, और इसलिये प्रस्तुत पदके विभागेसु' पदका आशय यदि अथके विभागों या अध्यायोंका लिया जाता है तो ग्रंथका नाम 'लोक' रह जाता है-'लोकविभाग' नहीं-और १ सिरिमूलसंध-देसियगण-पुत्थयगच्छ-कोंडकुंदाण । परमरण-इंगलेसर-बलिम्मि जादस्स मुणिपहाणस्स ॥ ~भावत्रिभगी ११८, परमागमसार २२६ । २ देखो, श्रवणबेलगोलके शिलालेख न. ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०८ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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