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________________ २२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची मुद्रित हो चुकी है। पं० सदासुखजीकी हिन्दी टीका इनसे भी पहले मुद्रित हुई है । और 'आराधनापब्जिका' तथा शिवजीलालकृत भावार्थदीपिका' टीका दोनों पूना के भाण्डारकर - प्राच्यविद्या संशोधक-मंदिरमे पाई जाती हैं, ऐसा पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने लेखों में सूचित किया है। २७. कार्तियानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार यह अनुप्रेक्षा अध्रुवादि रह भावनापर, जिन्हें भव्यजनो के लिये आनन्दकी जननी लिखा है (गा० १), एक बड़ा ही सुन्दर, सरल तथा मार्मिक ग्रंथ है और ४८६ गाथासंख्या हुए है । इसके उपदेश बड़े ही हृदय-ग्राही हैं, उक्तियाँ अन्तस्तलको स्पर्श करती हैं और इसीसे यह जैनसमाज में सर्वत्र प्रचलित है तथा बड़े ही आदर एव प्रेमकी दृष्टि देखा जाता है 1 इसके कर्ता प्रथकी निम्न गाथा न० ४८७ के अनुसार 'स्वामिकुमार' हैं, जिन्होंने निवचनकी भावनाके लिये और चचल मनको रोकनेके लिये परमश्रद्धा के साथ इन भावनाओकी रचना की है 1: जिण - वयण - भावणङ्कं सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुपेक्खाओ चंचलमण - कुंभणङ्कं च ॥ 'कुमार' शब्द पुत्र, बालक, राजकुमार, युवराज, अविवाहित, ब्रह्मचारी आदि अर्थोंके साथ ‘कार्तिकेय' अर्थ मे भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक प्राशय कृतिकाका पुत्र है और दूसरा आशय हिन्दुओंका वह षडानन देवता है जो शिवजीके उस वीर्य से उत्पन्न हुआ था जो पहले अग्निदेवताको प्राप्त हुआ, अग्निसे गंगामे पहुॅचा और फिर गगामे स्नान करती हुई छह कृतिकाओं के शरीर मे प्रविष्ट हुआ, जिससे उन्होने एक एक पुत्र प्रसव किया और वे छो पुत्र बादको विचित्र रूपमे मिलकर एक पुत्र कार्तिकेय हो गए, जिसके छह मुख और १२ भुजाएँ तथा १२ नेत्र बनलाये जाते हैं । और जो इसी से शिवपुत्र, अग्निपुत्र, गंगापुत्र तथा कृतिका आदिका पुत्र कहा जाता है । कुमारके इस कार्तिकेय अर्थको लेकर ही यह ग्रंथ स्वामिकार्तिकेय-कृत कहा जाता है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामोंसे इसकी सर्वत्र प्रसिद्धि है । (परन्तु ग्रंथभर में कहीं भी ग्रंथकारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न प्रथको कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामसे उल्लेखित ही किया है, प्रत्युत इसके, प्रतिज्ञा और समाप्ति वाक्योंमें ग्रंथका नाम सामान्यतः 'अणुपेहा' या 'श्रणुपेक्खा ' (अनुप्रेक्षा) और विशेषतः 'बारस अणुवेक्खा' दिया है' । कुन्दकुन्दके इस विषयके ग्रंथका नाम भी ‘बारस अणुपेक्खा' है । तब कार्तिकेयानुप्रेक्षा यह नाम किसने और कब दिया, यह एक अनुसन्धानका विषय है । ग्रंथपर एकमात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टारक शुभचन्द्रकी है और विक्रम संवत् १६१३ मे बनकर समाप्त हुई है। इस टीकामें अनेक स्थानों पर प्रथका नाम 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' दिया है और ग्रंथकारका नाम 'कार्तिकेय' मुनि प्रकट किया है। तथा कुमारका अर्थ भी 'कार्तिकेय' बतलाया है । इससे संभव है कि शुभचन्द्र भट्टारक १ वोच्छ श्रणुपेहा श्री ( गा० १), बारसश्रणुपेक्खाश्रो भणिया हु जिणागमानुसारेण ( गा० ४८८ ) । २ यथा: -- ( १ ) कार्तिकेयानुप्रेक्षाष्टीका वक्ष्ये शुभभिये । (श्रादिमंगल) (२) कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा । ( प्रशस्ति ८) ( ३ ) स्वामिकार्तिकयो मुनीन्द्रा अनुप्रेक्षा व्याख्यातुकामः मलगालन-मंगलावाप्ति-लक्षण[ मंगल] माचष्टे । ( गा० १) ( ४ ) केन रचित: स्वामिकुमारेण भव्यवर-पुण्डरीक - श्रीस्वामिकार्तिकेयमुनिना श्राजन्मशीलधारिणा श्रनुप्रेक्षाः रचिता: । ( गा० ४८७ ) (५) श्रहं श्रीकार्तिकयसाधुः सस्तुवे (४८६ ) | ( देहली नयामन्दिर प्रति, वि०सवत् १८०६ )
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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