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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची और उन्हें यथास्थान संनिविष्ट किया है, जिससे इस ग्रंथकी कुल गाथा-संख्या २३३ होगई है) इस सख्यासे मूल सूत्रगाथाओंको अलग व्यक्त करने के लिये प्रस्तुत वाक्य-सूचीमें उनके क्रमाङ्कों (नम्बरो) को व्र कट ( ) मे अलग दे दिया है । ग्रन्थ के ये गाथासूत्र प्राय बहत संक्षित हैं और अधिक अर्थके ससूचनको लिये हुए है । इसीसे इनकी कुल संख्या २३३ होते हुए भी इनपर यतिवृषभाचार्य ने छह हजार श्लोकपरिमाण चूर्णिसूत्र रचे, उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोकपरिमाण वृत्तिसूत्र लिखे और श्रीवीरसेन तथा जिनसेन आचार्योने (२०+४० हजारके क्रमसे) ६० हजार श्लोकपरिमाण 'जयघवला' टीकाकी रचना की, जो शकसंवत् ७५६ मे बनकर समाप्त हुई और जिसका अब सानुवाद छपना प्रारम्भ हो गया है तथा एक खण्ड प्रकाशित भी हो चुका है।) २५. षटखएडागम-यह १ जीवस्थान, २ क्षुल्लकबन्ध, ३ वन्धस्वामित्व विचय, ४ वेदना. ५ वर्गणा और ६ महावन्ध नामके छह खण्डोमें विभक्त आगम-ग्रंथ है । (इसके कर्ता श्री पुष्पदन्त और भूतबलि नामके दो आचार्य हैं । पुष्पदन्तने विंशति-प्ररूपणात्मक सूत्रोंकी रचना की है, जो कि प्रथमखण्डके सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अनुयोगद्वारके अन्तर्गत है, शेष सारा ग्रंथ भूतवलि आचार्यकी कृति है । इसका मूल आधार 'महाकम्मपडि-पाहूड' नामका वह श्रु त है जो अग्रायणीपूर्व-स्थित पंचम वस्तुका चौथा प्राभृत है और जिसका ज्ञान अष्टांग महानिमित्तके पारगामी धरसेनाचार्यको आचार्य-परम्परासे पूर्णतः प्राप्त हुआ था) और उन्होंने श्रतविच्छेदके भयसे उसे उक्त पुष्पदन्त तथा भूतबलि नामके दो खास मुनियों को पढ़ाया था, जो श्रु तके ग्रहण धारणमें समर्थ थे ।(इस पूरे प्रथको संख्या, इन्द्रनन्दि श्र तावतारके कथनानुसार ३६ हजार श्लोकपरिमाण है, जिसमेसे ६ हजार संख्या पॉच खण्डोंकी और शेष ३० हजार महावन्ध नामक छठे खण्डकी है। प्रथका विषय मुख्यतया जीव और कर्म-विपयक जैनसिद्धान्तका निरूपण है, जो बड़ा ही गहन है और अनेक भेद-प्रभेदों मे विभक्त है ) यह अथ प्रायः गद्यात्मक सूत्रोमे है, परन्तु कहीं कहीं गाथासूत्रोका भी प्रयोग किया गया है। ऐसे जो गाथासूत्र अभी तक टीकापरसे स्पष्ट हो सके है उन्हींको, पद्यानुक्रमणो होनेसे, इस वाक्य-सूचीमे लिया गया है। जो पद्य-वाक्य और स्पष्ट हो उन्हें विद्वानोको परिशिष्ट नं० २ मे बढ़ा लेना चाहिये । (इस प्रथके प्रायः चार खण्डोंपर वीं शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरसेनने 'धवला' नामकी टीका लिखी है, जो ७२ हजार श्लोकपरिमाण है और बड़ी ही महत्वपूर्ण है। इस टीकामे दूसरे दो खण्डोंके विषयको भी कुछ समाविष्ट किया गया है, इसस इन्द्रनन्दिके कथनानुसार यह छहो खण्डोंकी और विबुध श्रीधरके कथनानुसार पाँचखण्डोंकी टीका भी कहलाती है। यह टीका कई वर्षसे हिन्दी अनुवादादिके साथ छप रही है और इसके कई खण्ड निकल चुके हैं।) २६. भगवती आराधना-यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक तपरूप चार आराधनाओपर,जो मुक्ति को प्राप्त करानेवाली हैं, एक बड़ा ही अधिकार पूर्ण प्राचीन ग्रंथ है, जैनसमाजमे सर्वत्र प्रसिद्ध है और प्रायः मुनिधर्मसे सम्बन्ध रखता है। जनधर्भ में समाधिपूर्वक मरणकी सर्वोपरि विशेषता है मुनि हो या श्रावक सबका लक्ष्य उसकी ओर रहता है, नित्यकी प्रार्थनामे उसके लिये भावना की जाती है और उसकी सफलतापर जीवनकी सफलता तथा सुन्दर भविष्यकी आशा निर्भर रहती है। इस ग्रंथपर से समाधिपूर्वक मरणकी पर्याप्त शिक्षा-सामग्री तथा व्यवस्था मिलती है-सारा प्रथ मरण के भेद-प्रभेदों और तत्सम्बन्धी शिक्षाओं तथा व्यवस्थाओंसे भरा हुआ है। इसमे मरणके मुख्य पाँच भेद किये हैं-१ पंडितपंडित, २ पंडित, ३ बालपंडित, ४ बाल और ५ बालबाल । इनमें पहले तीन प्रशस्त और शेष अप्रेशस्त हैं। बाल-बालमरण मिथ्यादृष्टि जीवोंका,
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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