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________________ १६० पुरातन-जैनवाक्य-सूची ५वी गाथाकी व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरिके अनन्तर और दिन्नसूरिके पूर्वकी व्याख्यामें स्थित है। इन्द्रदिन्नसूरिको सुस्थित और सुप्रतिबुद्धके पट्टपर दसवाँ पट्टाचार्य वतलानेके बाद "अत्रान्तरे" शब्दोंके साथ कालकसूरि आयरवपुट्टाचार्य और आर्यमंगुका नामोल्लेख समयनिर्देशके साथ किया गया है और फिर लिखा है: "वृद्धवादी पादलिप्तश्चात्र । तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकाल-प्रासाद रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथविम्बं प्रकटीकृत, श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिवोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये ४७० संजातं ।" (इसमे वृद्धवादी और पादलिप्तके बाद सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख करते हुए उन्हे उज्जयिनीमे महाकालमन्दिरके रुद्रलिङ्गका कल्याणमन्दिरस्तात्रके द्वारा स्फोटन करके श्रीपार्श्वनाथकेबिम्बको प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्यराजाको प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है। साथ ही विक्रमादित्यका राज्य वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद हुआ निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेन दिवाकरका विक्रमकी प्रथम शताब्दीका विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेखित विक्रमादित्यको गलतरूपमे समझनेका परिणाम है । विक्रमादित्य नामके अनेक राजा हुए हैं। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है जो प्रचलित सवत्का प्रवर्तक है, इस बातको प० सुखलालजी आदिने भी स्वीकार किया है। अस्तु, तपागच्छ-पदावलीकी यह वृत्ति जिन आधारोपर निर्मित हुई है उनमें प्रधान पद तपागच्छकी मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावलीको दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम सवत् १४६६ है। परन्तु इस पट्टावलामें भी सिद्धसेनका नामोल्लेख नहीं है। उक्त वृत्तिसे कोई १०० वर्ष बादके (वि० स० १७३९ के बादक) बने हुए पट्टावलीसारोद्धार' ग्रन्थमे सिद्धसेनदिवाकरका उल्लेख प्रायः उन्हीं शब्दोमे दिया है जो उक्त वृत्तिमे 'तथा' से 'सजात' तक पाये जाते हैं। और यह उल्लख इन्द्रदिन्नसूरिके बाद 'अत्रान्तरे" शब्दोके साथ मात्र कालकसूरिके उल्लेखानन्तर किया गया है-आर्यखपुट, आर्यमगु, वृद्धवादी और पादलिप्त नामके प्राचार्योंका कालकसूरिके अनन्तर और सिद्धसेनके पूर्वमे कोई उल्लेख ही नहीं किया है। वि० सं० १७८६ से भी बादकी बनी हुई 'श्रीगुरुपट्टावली' मे भी सिद्धसेनदिवाकरका नाम उज्जयिनीकी लिगस्फोटन-सम्बन्धी घटनाके साथ उल्लेखित है । । इस तरह श्वे. पट्टावलियो-गुर्वावलियोमे सिद्धसेनका दिवाकररूपमें उल्लेख विक्रमकी २५वीं शताब्दीके उत्तरार्धसे पाया जाता है, कतिपय प्रबन्धोमे उनके इस विशेषणका प्रयोग सौ-दो सौ वर्ष और पहलेसे हुआ जान पडता। रही स्मरणोकी वात, उनकी भी प्रायः एसी ही हालत है-कुछ स्मरण दिवाकर-विशेषणको साथमे लिये हुए हैं और कुछ नहीं है । श्वेताम्बर साहित्यसे सिद्धसेनके श्रद्धाञ्जलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाशमें आय है व प्रायः इस प्रकार है: १ देखो, मुनि दर्शनविजय-द्वारा सम्पादित 'पट्टावलीसमुच्चय' प्रथम भाग । २ "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरोपि जातो येनोजयिन्या महाकालप्रासादे रुद्रालगस्फोटन कृत्वा कल्याणमन्दिर स्तवनेन श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रकृटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिवाणात् सप्ततिवर्षाधिक शतचतुष्टये ४७०ऽतिक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्य सजातं ॥१०॥-पट्टावलीसमुच्चय पृ० १५० ३ "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोजयिनीनगर्यो महाकाल प्रासादे लिंगस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्य श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकृटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतं ।"-पट्टा० स० पृ० १६६ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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