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________________ प्रस्तावना १५६ नियमसारकी टीकामें पद्मप्रभ मलधारिदेवने सिद्धान्तोद्भश्रीधव सिद्धसेनं । वन्दे वाक्पके द्वारा सिद्धसेनकी वन्दना करते हुए उन्हें 'सिद्धान्तकी जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उच्चश्रीके स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्तिने आचार्यपूजाके प्रारम्भमें दी हुई गुर्वावलीमें "सिद्धान्तपायोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः" इस वाक्यके द्वारा सिद्धसेनको 'सिद्धान्तसागरके पारगामी' और 'गणके सारभूत' बतलाया है । मुनिकन कामरने 'करकडुचरिउ'मे, सिद्धसेनको समन्तभद्र तथा अकलङ्कदेवके समकक्ष 'श्रुतजलके समुद्र' रूपमे उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धाजलि-मय दिगम्बर उल्लेख भी सन्मतिकार-सिद्धसेनसे सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौरपर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्वका अच्छा आभास ग्रन्थके अन्तिम काण्डकी उन गाथाओं (६१ श्रादि)से भी मिलता है जो श्रुतधर-शब्दसन्तुष्टो, भक्तसिद्धान्तज्ञों और शिष्यगणपरिवृत-बहुश्रुतमन्योंकी आलोचनाको लिए हुए है। श्वेताम्बर सम्प्रदायम आचार्य सिद्धसेन प्रायः 'दिवाकर' विशेषण अथवा उपपद (उपनाम)के साथ प्रसिद्धिको प्राप्त है। उनके लिये इस विशंपण-पदके प्रयागका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमे सबसे पहले हरिभद्रसूरिके 'पञ्चवस्तु', ग्रन्थमे देखनेको मिलता है, जिसमे उन्हे दुःषमाकालरूप रानिके लिये दिवाकर (सूर्य) के समान होनेसे 'दिवाकर की आख्याको प्राप्त हुए लिखा है। इसके बादसे ही यह विशेषण उधर प्रचारमे आया जान पड़ता है, क्योंकि श्वेताम्बर चूर्णियों तथा मल्लवादीके नयचक्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थोमें जहाँ सिद्धसेनका नामाल्लेख है वहाँ उनके साथम 'दिवाकर' विशेपणका प्रयोग नहीं पाया जाता है। हरिभद्रके वाद विक्रमकी ११वी शताब्दीके विद्वान् अभयदेवसूरिने सन्मतिटीकाके प्रारम्भमें उसे उसी दुःपमाकालरात्रिके अन्धकारका दूर करनवालके अर्थमें अपनाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियोमें विक्रमकी छठी शताब्दी आदिकी जो प्राचीन पट्टावलिया है-जस कल्पसूत्रस्थावरावली(थरावली), नन्दीसूत्रपट्टावली, दुःषमाकाल-श्रमणसघस्तव-उनमे तो सिद्धसनका कहीं काइ नामाल्लख हा नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसघकी अवचूरिमें, जो विक्रमकी हवी शताब्दीसे बादकी रचना है, सिद्धसेनका नाम जरूर है (कन्तु उन्हें दिवाकर न लिखकर 'प्रभावक' लिखा है और साथ ही धर्माचार्यका शिष्य सूचित किया है-वृद्धवादीका नहीं: "अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य-श्रीसिद्धसेन-प्रभावकः ॥" (दुसरा विक्रमी १५वी शताब्दी आदिकी बनी हुई पट्टावलियोंमे भी कितनी ही पट्टावलियाँ ऐसी हैं जिनमें सिद्धसेनका नाम नहीं है जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छपट्टावलीसूत्र, महावीरपट्टपरम्परा, युगप्रधानसम्बन्ध (लोकप्रकाश) और मूरिपरम्परा । हाँ, तपागच्छपट्टावलासूत्रको वृत्तिमें, जो विक्रमकी १७वी शताब्दी (सं० १६४८)की रचना है, सिद्धसेनका दिवाकर' विशेषणके साथ उल्लेख जरूर पाया जाता है । यह उल्लेख मूल पट्टावलीकी V१ तो सिद्धसेण सुसमतभद्द अकलकदेव समजलसमुद्द। क०२ --२ आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइष्ठिअजसेण । दूसमाणसा-दिवागर कप्पन्तणयो तदक्खेण ॥१०४८ ४३ देखो, सन्मतिसूत्रकी गुजराती प्रस्तावना पृ० ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि (उद्देश ४) और दशाचूर्णिके -उल्लेख तथा पिछले समय सम्बन्धी प्रकरणमें उद्धृत नयचक्रके उल्लेख । ५४ “इति मन्वान आचार्यो दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भ तसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वसकत्वेनावाप्तयथार्था भिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्तमान. ' ' स्तवाभिधायिका गाथामाह ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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