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________________ प्रस्तावना १५१ इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिशिकाएँ तीनो एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ है । और यह सिद्ध नहीं है। पूज्यपादसे पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा अभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धिर्म सनातनसे चले आये युगपद्वादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते। बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोका खण्डन जरूर करते परन्तु ऐसा नहीं है, और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समयमें केवली के उपयोग-विषयक क्रमवाद तथा अभेटवाद प्रचलित नहीं हुए थे-वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोपित तथा प्रचारको प्राप्त हुए हैं, और इसीसे पूज्यपादके बाद अकलङ्कादिकके साहित्यमें उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है। क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेनके द्वारा हुआ है। उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रकी विशेषणवतीगत उन दो गाथाओं (केई भणति जुगवं' इत्यादि नम्बर १८४, १८५)से भी होता है जिनमें युगपत् , क्रम और अभेद इन तीनो वादोके पुरस्कर्ताओका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर (न० २मे) उद्धृत किया जा चुका है। (प. सुखलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय : विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है. इसीसे इन वादोके क्रम-विकासको समझने में उन्हे भ्रान्ति हुई है । और वे यह प्रतिपादन करनेमे प्रवृत्त हुए है कि पहले क्रमवाद था, युगपत्वाद वादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति द्वारा जैन वाडमयमें प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभेदवादका प्रवेश मुख्यतः सिद्धसेनाचायके द्वारा हुआ है। परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योकि प्रथम ता युगपत्वादका प्रतिवाद भद्रवाहकी आवश्यकनियुक्तिके "सव्वस्स केवलिस्स वि जुगव दो रणत्थि उवोगा" इस वाक्यमें पाया जाता है जो भद्रबाहुको दूसरी शताब्दीका विद्वान् माननेके कारण उमास्वातिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है। दूसरे, श्रीकुन्दकुन्दाचायके नियमसार-जैसे ग्रन्थों और आचाय भूतलिके पटखण्डागममें भी युगपत्वादका स्पष्ट विधान पाया जाता है । ये दोनों प्राचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती हैं और इनके युगपद्वाद-विधायक वाक्य नमुनेके तौरपर इस प्रकार हैं: "जुगव वट्टइ णाण केवलणाणिस्स दसण च तहा । दिणयर-पयास-तावं जह वट्टइ तह मुणेयव्य ॥" (णियम०१५९)। "सय भयव उप्पण-णाण-दरिसी सदेवाऽसुर-माणुसस्स लोगस्स आगदि गदि चयणोववादं बंधं मोक्ख इद्धि ठिदि जुदि अणुभाग तक कलं मणोमाणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्म सबलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्व समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति ।"--(पट्खण्डा० ४ पयडि अ० सू० ७८)। १ “स उपयोगो द्विविधः । ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति । साकार ज्ञानमनाकार दर्शनमिति । __ तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।" .2 ज्ञानबिन्दु परिचय पृ० ५, पादटिप्पण। । V३ "मतिजानादिचतुष पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । सभिन्नजानदर्शनस्य तु भगवतः केलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलशाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति । -तत्त्वार्थभाष्य १-३१ । ४ उमास्वातिवाचकको ५० सुखलालजीने विक्रमकी तीसरीसे पाँचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् / बतलाया है । (ज्ञा० वि० परि० पृ० ५४)। V५ इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख श्रवणबेल्गोलादिके शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियोंमें पाया जाता है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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