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________________ १५० पुरातन-जैनवाक्य-सूची चतुर्थ चरण तक पहुंचता है, क्योंकि वि० स० ८५७के लगभग धनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके पड्दर्शनसमुशयमें उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्रके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोपित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शाखवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवनमें 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्त सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मतका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामे 'सूक्ष्मबुद्धिना'का 'शान्तरक्षितन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है। शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुलसांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोमे ई० सन् ८४० (वि० स०८९७) तक बतलाया है। हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये । इससे हरिभद्रका कथन उक्त समयमें बाधक नहीं रहता और सब कथनोकी सद्गति ठीक बैठ जाती है। , . नयचक्रके उक्त विशेष परिचयसे यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थमें सिद्धसेन नामके साथ जो भी उल्लेख मिलते है उनमें सिद्धसेनको 'प्राचार्य' और 'सूरि' जैसे पदोके साथ तो उल्लेखित किया है परन्तु 'दिवाकर' पदके साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है, तभी मुनि श्रीजम्बूविजयजीकी यह लिखनेमे प्रवृत्ति हुई है कि "श्रा सिद्धसेनसूरि सिद्धसेनदिवाकरज सभवतः होवा जोइये" अर्थात् यह सिद्धसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहिये-भले ही दिवाकर नामके साथ वे उल्लेखित नहीं मिलते) उनका यह लिखना जनकी धारणा और भावनाका ही प्रतीक कहा जा सकता है; क्योकि होना चाहिये का कोई कारण साथमे व्यक्त नहीं किया गया । प० सुखलालजीने अपने उक्त प्रमाणमें इन सिद्धसेनको 'दिवाकर' नामसे ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थितिका बड़ा ही गलत निरूपण है और अनेक भूल-भ्रान्तियोंको जन्म देने वाला है-किसी विषयको विचारके लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानाके द्वारा अपनी प्रयोजनादि-सिद्धिके लिय वस्तुस्थितिका एसा गलत चित्रण नही होना चाहिये। हॉ. उक्त परिचयसे यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नामके साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं उनमेंसे कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकरके नामपर चढे हुए उपलब्ध प्रन्थोमेसे किसीमें भी नहीं मिलता है। नमूनेके तौरपर जो दो उल्लेख परिचयमें उद्धृत किये गये हैं उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादिसे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इससे भी सिद्धसेनके उन उल्लेखोंको दिवाकरके उल्लेख वतलाना व्यर्थ ठहरता है। ___रही द्वितीय प्रमाणकी बात उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिंशिकाके कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले हुए है-उनका समय विक्रमकी पॉचवी शताब्दी भी हो सकता है । इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले अथवा विक्रमकी ५वीं शताब्दीमे हुए है। १. हवीं शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिनविजयजीने भी अपने हरिभद्र के समयनिर्णयवाले लेखमें बतलाया है। क्योंकि विक्रमसवत् ८३५ (शक स० ७००)में बनी हुई कुवलयमालामें उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्यामें अपना गुरु लिखा है । हरिभद्रके समय, सयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनको श्रायुका अनुमान सौ वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुवलयमालाकी रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं । '२ "तथा च प्राचार्यसिद्धसेन पाह “यत्र हों वाच व्यभिचरति न (ना) भिधान तत् ॥ [वि० २७७] "अस्ति-भवति-विद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेषणाक्तत्वात् सिद्धसेनसूरिणा।"[वि. १६६
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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