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________________ १३८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची __ ऐसी हालतमे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिंशिका ११९) उन्हीं सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं है जो कि सन्मतिसूत्रके कर्ता हैं- दोनोके कर्ता सिद्धसेननामकी समानताको धारण करते हुए भी एक दूसरेसे एकदम भिन्न है । साथ ही, यह कहनेमें भी कोई सङ्कोच नहीं होता कि न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन भी निश्चयद्वात्रिशिकाके कर्तासे भिन्न हैं, क्योंकि उन्होने श्रुतज्ञानके भेदको स्पष्टरूपसे माना है और उसे अपने ग्रन्थमे शब्दप्रमाण अथवा आगम( श्रुत-शास्त्र )प्रमाणके रूपमें रक्खा है, जैसा कि न्यायावतारके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:"दृष्टेष्टाऽव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाऽभिधायिनः । तत्त्व-ग्राहितयोत्पन्न मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥८॥ 'प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमहप्टेष्ट-विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्रं कापथ-घट्टनम् ॥" "नयानामेकनिष्ठाना प्रवृत्तः श्रुतवम॑नि । सम्पूर्णार्थविनिश्वायि स्याद्वादश्रु तमुच्यते ॥३०॥" (इस सम्बन्धमे पं० सुखलालजोने, ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें, यह बतलाते हुए कि 'निश्चयद्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्धसेनने मति और श्रुतमें ही नही किन्तु अवधि और मनःपर्यायमें भी आगमसिद्ध भेद-रेखाके विरुद्ध तर्क करके उसे अमान्य किया है) एक फुटनोट-द्वारा जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है: "यद्यपि दिवाकरश्री(सिद्धसेन)ने अपनी बत्तीसी (निश्चय० १९)मे मति और श्रुतके अभेदको स्थापित किया है फिर भी उन्होने चिरप्रचलित मति-श्रुतके भेदकी सर्वथा अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायावतारमे आगमप्रमाणको स्वतन्त्ररूपसे निर्दिष्ट किया है । जान पडता है इस जगह दिवाकरश्रीने प्राचीन परम्पराका अनुसरण किया और उक्त बत्तीसीमे अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया। इस तरह दिवाकरश्रीके ग्रन्थोमे आगमप्रमाणको स्वतन्त्र अतिरिक्त मानने और न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरोय धाराएँ देखी जाती हैं जिनका स्वीकार ज्ञानबिन्दुमे उपाध्यायजीने भी किया है।" (पृ. २४) इस फुटनोटमे जो बात निश्चयद्वात्रिंशिका और न्यायावतारके मति-श्रुत-विषयक विरोधके समन्वयमें कही गई है वही उनकी तरफसे निश्चयद्वात्रिंशिका और सन्मतिके अवधिमनःपर्यय-विषयक विरोधके समन्वयमें भी कही जा सकती है और समझनी चाहिये । परन्तु यह सब कथन एकमात्र तीनों अन्थोंकी एक्कत त्व-मान्यतापर अवलम्बित है, जिसका साम्प्रदायिक मान्यताको छोड़कर दूसरा कोई भी प्रबल आधार नहीं है और इसलिये जब तक द्वात्रिंशिका, न्यायावतार और सन्मतिसूत्र तीनोंको एक ही सिद्धसेनकृत सिद्ध न कर दिया जाय तब तक इस कथनका कुछ भी मूल्य नहीं है। तीनो अन्याका एक-कतृत्व अभी तक सिद्ध नहीं है। प्रत्युत इसके द्वात्रिशिका और अन्य ग्रन्थोके परस्पर विरोधी कथनोंके कारण उनका विभिन्नक के होना पाया जाता है। जान पड़ता है प० सुखलालजीके हृदयमें यहाँ विभिन्न सिद्धसेनोंकी कल्पना ही उत्पन्न नहीं हुई और इसी लिये वे उक्त समन्वयकी कल्पना करनेमे प्रवृत्त हुए हैं, जो ठीक नहीं है, क्योकि सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन-जैसे स्वतन्त्र विचारक यदि निश्चयद्वात्रिशिकाके कर्ता होते तो उनके लिये 'कोई वजह नहीं थी कि वे एक ग्रन्थम प्रदर्शित अपने स्वतन्त्र विचारोको दवाकर दूसरे ग्रन्थमे अपने विरुद्ध परम्पराके विचारोका अनुसरण करते, खासकर उस हालतमें जब कि वे सन्मतिमे उपयोग-सम्बन्धी युगपद्वादादिका प्राचीन परम्पराका खण्डन करके अपने अभेदवाद-विषयक नये स्वतन्त्र विचारोंको प्रकट करते हुए देखे जाते हैं-वहींपर वे श्रु तज्ञान और मनःपर्ययज्ञान-विषयक अपने उन स्वतन्त्र • १ यह पद्य मूलमें स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकका है, वहींसे उद्धृत किया गया है ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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