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________________ प्रस्तावना १३७ सिद्धसेनदिवाकरसे भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपद्वादुके समर्थक हुए हो या माने जाते हो।" वे दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिशिकाओंमेसे किसीके भी कर्ता होने चाहिये । अतः इन तीनों द्वात्रिंशिकाओंको सन्मतिसूत्रके कर्ता आचार्य सिद्धसेनकी जो कृति माना जाता है-वह ठीक और सगत प्रतीत नहीं होता। इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन है जो केवलीके विषयमें युगपद्-उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद-उपयोगवादिताका समर्थन हरिभद्राचार्यके उक्त प्राचीन उल्लेखसे भी होता है। (३) १९वीं निश्चयद्वात्रिंशिकामें "सर्वोपयोग द्वैविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्" इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोंके उपयोगका द्वैविध्य अविनश्वर है।' अर्थात् कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छद्मस्थज्ञानी हो या केवली सभीके ज्ञान और दर्शन दोनो प्रकारके उपयोगोंका सत्व होता है-यह दूसरी बात है कि एकमें वे क्रमसे प्रवृत्त (चरितार्थ) होते हैं और दूसरेमे आवरणाभावके कारण युगपत् । इससे उस एकोपयोगवादका विरोध आता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्रमें केवलीको लक्ष्यमे लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है । ऐसी स्थितिमे यह १६वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी कृति मालूम नहीं होती। (४) उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १६मे अ तज्ञानको मतिज्ञानसे अलग नहीं माना हैलिखा है कि 'मतिज्ञानसे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नहीं है श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोषको लिये हुए है। और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका अभेद प्रतिपादन किया है। इसी तरह अवधिज्ञानसे भिन्न मनःपर्ययज्ञानकी मान्यताका भी निषेध किया है-लिखा है कि 'या तो द्वीन्द्रियादिक जीवोंके भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते है, मनःपर्योवज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मनःपययज्ञान कोई जुदी वस्तु नहीं है । इन दानो मन्तव्योंके प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार हैं:"वैयर्थ्यातिप्रसगाभ्या न मत्यधिकं श्रतम् । सर्वेभ्यः केवल चक्ष स्तमः-क्रम विवेककृत् ॥१३॥" "प्रार्थना-प्रतिघाताभ्या चेप्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । मनःपर्यायविज्ञानं युक्त तेषु न वाऽन्यथा ॥१॥" यह सब कथन सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योकि उसमें श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनोको अलग ज्ञानोंके रूपमें स्पष्टरूपसे स्वीकार किया गया है जैसा कि उसके द्वितीय, काण्डगत निम्न वाक्योंसे प्रकट है: "मणपजवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ॥३॥" "जेण मणोविसयगयाण दमणं णत्थि दध्वजायाण । तो मणपज्जवणाण णियमा गाण तु णिद्दिट्ठ॥१९॥" "मणपजवणाण दमणं ति तेणेह होइ ण य जुत्त । भएणइ गाणं णोइदियम्मि ण घडादयो जम्हा ॥२६॥" "मइ-सुय-णाणणिमित्तो छडमत्थे होइ अत्थउवलभो । एगयरम्मि वि तेसि ण दंसणं दमणं कत्तो ? ॥२७॥ जं पञ्चक्खग्गहणं णं इंति सुयणाण-सम्मियो अत्था । तम्हा दंमणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥२८॥" ५ तृतीयकाण्डमें भी अागमश्र तज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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