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________________ प्रस्तावना अनुवादों का निर्माण हुआ है। इनमेंसे दूसरी केशववी की टीकाको छोड़कर, जो अभी ' तक अप्रकाशित है, शेष तीनों टीकाएं कलकत्तासे 'गॉधी हरिभाई देवकरण-जेनग्रंथमाला' में एक साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। कनडी और संध्कृत दोनों टीकाओंका एक ही नाम (जीवतत्त्वप्रदीपिका) होने, मूल ग्रंथकर्ता और संस्कृत टीकाकारका भी एक ही नाम (नेमिचन्द्र) होने, कर्मकाण्डकी गाथा नं० ६७२ के एक अस्पष्ट उल्लेखपरसे चामुण्डरायको कनडी टीकाका कर्ता समझा जाने और संस्कृत टीकाके 'श्रित्वा कर्णाटकी वृत्ति' पद्यके द्वितीय चरणमें वर्णिश्रीकेशवैः कृतां' की जगह कुछ प्रतियोंमे 'वर्णिश्रीकेशवैः कृति.' पाठ उपलब्ध होने आदि कारणोसे पिछले अनेक विद्वानोंको, जिनमे प० टोडरमल्लजी भी शामिल हैं. संस्कृत टीकाके कर्तृत्व-विषयमे भ्रम रहा है और उसके फलस्वरूप उन्होंने उसका कर्ता केशववणी' लिख दिया है । चुनॉचे कलकत्तासे गोम्मटसारका जो संस्करण दो टीकाओं सहित प्रकाशित हुआ है उसमे भी संस्कृत टीकाको "केशववर्णीकृत" लिख दिया है । इस फैले हुए भ्रमको डा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने तीनों टीकाओं और गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तियोकी तुलना आदिके द्वारा, अपने एक लेखमे बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है और यह साफ घोषित कर दिया है कि 'सस्कृत टीका नेमिचन्द्राचार्यकृत है और उसमे जिस कनडी टीकाका गाढ अनुसरण है वह अभयसूरिके शिष्य केशववर्णीकी कृति है और उसकी रचना धर्मभूषण भट्टारकके आदेशानुसार शक सं० १२८१ (ई० सन् १३५६) मे हुई है। जबकि संस्कृत टीका मल्लिभूपालके समयमे लिखी गई है, जो कि सालुव मल्लिराय थे और जिनका समय शिलालेखों आदि परसे ईसाकी १६वीं शताब्दीका प्रथमचरण पाया जाता है, और इसलिये इस टीकाको १६वीं शताब्दीके प्रथम चरणकी ठहराया जा सकता है। साथ ही यह भी बतलाया है कि दोनों प्रशस्तियोंपरसे इस संस्कृत टीकाके कर्ता वे आचार्य नेमिचन्द्र उपलब्ध होते हैं जो मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दअन्वय और नन्दि आम्नायके आचार्य थे, ज्ञानभूषण भट्टारकके शिष्य थे, जिन्हें प्रभाचद्र भट्टारकने, जोकि सफलवादी तार्किक थे, सूरि बनाया अथवा आचार्यपद प्रदान किया था, कर्नाटकके जैन राजा मल्लिभूपालके प्रयत्नोंके फलस्वरूप जिन्होने मुनिचद्रसे, जोकि 'विविद्यापरमेश्वर के पदसे विभूषित थे, सिद्धान्तका अध्ययन किया था, जो लालावर्णी के आग्रहसे गौरदेशसे आकर चित्रकूटमे जिनदासशाह-वारा .मापित पावनाथके मन्दिरमे ठहरे थे और जिन्होंने धर्मचन्द अभयचन्द्र तथा अन्य सज्जनों के हितके लिये खण्डेलवालवंशके साह सांग और साह सहेसकी प्राथनापर यह सस्कृत टीका, कर्णाटकवृत्तिका अनुसरण करते हुए, त्रैविद्यविद्या-विशालकीर्किकी सहायतासे लिखी थी। और इस टीकाकी प्रथम प्रति अभयचंद्रने जोकि निर्मन्थाचार्य और त्रैविद्यचक्रवर्ती कहलाते थे, संशोधन करके तैयार की थी । दोनों प्रशस्तियोंकी ५ हिन्दी अनुवाद जीवकाण्डर पं० खूबचन्दका, कर्मकाण्डपर ५० मनोहरलालका, ऋग्रेजी अनुवाद जीवकाण्डपर मिस्टर जे एल. जैनीका, कर्मकाण्डपर व्र. शीतलप्रसाद तथा बाबू अजितप्रसादका, और मराठी अनुवाद गाधी नेमचन्द बालचन्दका है। २ यह पाठ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बईकी जीवतत्वप्रदीपिका सहित गोम्मटसारकी एक हस्तलिखित प्रतिपरसे उपलब्ध होता है (रिपोर्ट १ वीर स० २४४६, पृ० १०४-१०६)। ३ प० टोडरमल्लजीने लिखा है "केशववर्णी भव्य विचार कर्णाटक-टीका-अनुसार । सस्कृत टीका कीनी पहु जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥" ४ अनेकान्त वर्ष ४ कि० १ पृ० ११३-१२० ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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