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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची त्कीर्तन' अधिकारकी समाप्तिको घोषित न किया जाता । और यदि कर्म काण्डसे पहले उन्हीं आचार्य महोदयने कर्मप्रकृतिकी रचना की होती तो उन्हें अपनी उन पूर्व-निर्मित २८ गाथाओके स्थानपर सूत्रोको नवनिमाण करके रखनेकी जरूरत न होती - खासकर उस हालत मे जब कि उनका कर्मकाण्ड भी पद्यात्मक था । और इस लिये मेरी राय मे यह 'कर्मप्रकृति' या तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक अथवा विद्वानकी कृति है जिनके साथ नाम-साम्यादिके कारण 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' का पद बादको कहीं-कहीं जुड़ गया है- - सब प्रतियों मे वह नहीं पाया जाता। और या किसी दूसरे विद्वान्ने उसका संकलन कर उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामाङ्कित किया है, और ऐसा करनेमे उसकी दो दृष्टि हो सकती है— एक तो ग्रंथ-प्रचार की और दूसरी नेमिचन्द्रके श्रेय तथा उपकार स्मरणको स्थिर रखनेको । क्योकि इस प्रथका अधिकाश शरीर आद्यन्तभागों सहित, उन्हींके गोम्मटसारपरसे बना है - इसमे गोम्मटसारषी १०२ गाथाएं तो ज्यो-की-त्यों उद्धृत हैं और २८ गाथाएं उसीके गद्यसूत्रोपरसे निर्मित हुई जान पड़ती हैं। शेप ३० गाथाओं मेसे १६ दूसरे कई ग्रथोकी ऊपर सूचित की जा चुकी है और १४ ऐसी हैं जिनके ठीक स्थानका अभी तक पता नहीं चला—वे धवलादि ग्रंथों के पट्संहननोंके लक्षण - जैसे वाक्योंपर से खुदकी निर्मित भी हो सकती हैं リ दद हॉ, ऐसी सन्दिग्ध अवस्थामे यह हो सकता है कि प्राकृत मूल-सूत्रोंके नीचे उनके अनुरूप इन सूत्रानुसारिणी २८ गाथाओं को भी यथास्थान ब्रैकट [ ] के भीतर रख दिया जावे, जिससे पद्य-प्रेमियोंको पद्य क्रमसे ही उनके विपयके अध्ययन तथा कण्ठस्थादि करने मे सहायता मिल सके । और तब यह गाथाओं के संस्कृत छायात्मक रूपकी तरह गद्य-सूत्रोका पद्यात्मक रूप कहलाएगा, जिसके साथ रहने मे कोई वाघा प्रतीत नहीं होती - मूल ज्यो- का त्यो अक्षुण बना रहता है । आशा है विद्वज्जन इसपर विचार कर समुचित मार्गको अङ्गीकार करेंगे । (घ) ग्रंथकी टीकाऍ —— - 1 इस गोम्मटसार ग्रंथपर मुख्यतः चार टीलाऍ उपलब्ध हैं- एक, अभयचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका 'मन्दप्रवोधिका', जो जीवकाण्डकी गाथा न० ३८३ तक ही पाई जाती है, प्रथ के शेष भागपर वह बनी या कि नहीं इसका कोई ठीक निश्चय नहीं । दूसरी, केशववर्णीकी संस्कृत - मिश्रित कनडी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका', जो ग्रंथके दोनों का डोप अच्छे विस्तारको लिये हुए है और जिसमे मन्दप्रबोधिकाका पूरा अनुसरण किया गया है। तीसरी, नेमिचंद्राचार्यकी संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका', जो पिछली दोनों टीकाओका गाढ अनुसरण करती हुई ग्रंथके दोनो काण्डोपर यथेष्ट विस्तार के साथ लिखी गई. चौथी, प० टोडरमल्लजीकी हिन्दी टीका 'सम्यग्ज्ञानचद्रिका', जो संस्कृत टीका के विपयको खूब स्पष्ट करके बतलानेवाली है और जिसके आधारपर हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के J१ भट्टारक ज्ञानभूषणने अपनी टीका में कर्मकाण्ड पर नाम कर्मप्रकृतिको 'सिद्धान्तज्ञानचक्रवर्ती-श्रीनेमिचन्द्रविरचित' लिखा हैं । इसमें 'सिद्धान्त' और 'चक्रवर्ति के मध्य में 'ज्ञान' शब्दका प्रयोग अपनी कुछ खास विशेषता रखता हुंश्रा मालूम होता है और उसके संयोग से इस विशेषण- गदकी वह स्पिरिट नहीं रहती जो मतिचक्रसे षट्खण्डरूप श्रागम-सिद्धान्त की साधना कर सिद्धान्तचक्रवर्ती बनने की बताई गई है (क० ३६७), बल्कि सिद्धान्तज्ञान के प्रचारकी स्पिरिट सामने श्राती है, और इसलिये इसका संग्रहकर्ता प्रचारकी स्पिरिटको लिये हुए कोई दूसरा ही होना चाहिये, ऐसा इस प्रयोगपरसे खयाल उत्पन्न होता है ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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