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________________ पुराण और जैन धर्म मत्स्यपुराण का वना, इसका निर्णय अभी तक नहीं हुआ [और न होना ही सम्भव है] जथापि अन्यपुराणों को अपेक्षा वह कुत्र अधिक प्राचीन है ऐसा कई एक विद्वान मानते हैं । [परस्पर विरोध के परिहार का सुगम उपाय ] हमारे पाठकों में से बहुत से सजनों को मल्यपुराण की इन आख्यायिका का भागवतादि पुराण अन्धों के लेखों के साथ कुछ विरोध भी प्रतीत होगा। परन्तु इसने वे घबड़ायें नहीं। विरोध परिहारार्थ हम उनको एक बड़ा ही सुगम उपाय बतलाते हैं। - -युगगा की प्राचीनतः । इस देश में ताम्र-पों पर स्कार। हुए जो दान-पत्र मिलते हैं. उनमें भूमि-नान प्रादि में सम्बन्ध गगने गरे कितने ही लोक प्राय एक ही ले उकी रहने हैं । यथा (१) बहुभिवंमुधा भुक्ता राजभि. मगगटिभिः । (०) पष्टिवर्षमहमागि बगेंमोदति भूमिद । (३) बदना पग्दना वा योहरत यमुन्धगम् । (१) अग्नंगपन्यं प्रथम सुवर्गम् । लोक पत्र, भविष्य और प्रखपुगए हैं। जिन दान-गयों पर निमे हुए हैं उनमें में कई एर ४७५ मा मत्री के शोग हुए है। इसमें सिमान्त निकलता है किम को पांच महीमाडी पहले में न पुगों का मगर भारत में था । निन पुगगों के र पुगतल्या पटित पान पोडेफ पुगग समझो। म मानिनस पुगणादि पोरे लोग मर में पुराना गाकरे न मालम मोर पित पुराने होंगे। [माम्ना मामा विभिन
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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