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________________ पुराण और जैन धर्म मायामय शास्त्र पढ़ाया, स्वर्ग नरक यहीं हैं अन्यत्र उनकी सत्ता नहीं ॥१५॥ फिर विष्णु ने शिवजी के चरण कमल का स्मरण करके कहा कि इस त्रिपुर में निवास करने वाले सभी दैत्य जनों को तुम अपनी माया से मोहित करदो ॥१६।। तुम उनको दीक्षा देकर यत्न सहित यह शास्त्र पढ़ाओ, हे महामते ! मेरी आज्ञा से तुमको इसमें कुछ दोष नहीं लगेगा ॥१७॥ इसमें सन्देह नहीं कि उनमें श्रौत और ' स्मात धर्मों का प्रकाश हो रहा है, हे यतिराज ! तुम इस विद्या से उन सबको विच्छिन्न करदो ॥१८॥ हे मुण्डी ! तुम उन त्रिपुरवासियों के विनाशार्थ गमन करो, उनमें तमोगुणी धर्म का प्रकाश करके त्रिपुर का नाश कर डालो ॥१९॥ हे विभों ! फिर तुम यहां से मरुस्थल में जाकर कलियुगके आने तक स्वधर्मसे निवास करना,और कलियुग के आजाने पर तुम अपने धर्म का प्रकाश करना, तथा शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अपने धर्म का प्रचार करना ।।२१।। मेरी आज्ञा से आपके धर्म का निश्चित ही विस्तार होगा, मेरी आज्ञा में तत्पर रहने से तुम को अवश्य ही सद्गति मिलेगी ।।२२।। इस प्रकार देव देव महादेव की आज्ञा से हृदय में प्रेरित होकर हरि उसके प्रति यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये ॥२३॥ तब मुनि ने हरि की आज्ञा पालन करने के निमित्त अपने चार शिष्य बनाये और उनको यथायोग्य अपना मायामय शास्त्र पढ़ाया ॥२४॥ जैसे वह था वैसे ही उसके चारों शिष्य हुए, परमात्मा हरि को नमस्कार कर वहां स्थिति हुए ॥२५॥ हरि ने भी शिवजी की आज्ञा पालन करने के निमित्त उन चारों शिष्यों से बड़ी प्रसन्नता पूर्वक कहा।।। -
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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