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________________ पुराण और जैन धर्म हाय में एक वस्त्र लेकर उससे मुख को ढांके हुए और "धर्मलाभ" पसे कहते हुए एक पुरुष को उत्पन्न किया ॥३॥ वह मुनि विगु जी को प्रणाम कर उनके धागे स्थित हुआ, कहने लगा ॥४॥ अरियों के नाश करने वाले अच्युत ! श्राप मुझ पाना दें, मैं क्या का ? हे देव ! मेरे क्या क्या नाम होगे ? और मेरा न्धान भी श्राप कहिये ॥५॥ विष्णु भगवान् उसके इस मुन्दर वचन को सुनकर प्रसन्न मन से इस तरह बोले ॥ ६ ॥ मैंने तुमको जिसलिंग निर्माण किया है सोनुम सुनो, हे महाप्राज तुम मेरे अग ने उत्पन्न होने के कारण निस्सन्देह तुम मेरे ही रूप हो ।।। मेरे अङ्ग ने उत्पन्न होने के कारण तुम मेरा कार्य करने के योग्य हो, तुम मेरे हो इसलिये सदा पूज्य होगे, इसमें सन्देह नहीं । तुम्हारा मुख्य नाम अरिहन होगा तया और भी मुन्दर नाम होगे, पाछे से तुम्हारे स्थान को भी कहूंगा, प्रथम तुम प्रस्तुत कार्य को मुनी ॥९॥ मायावी! तुम सोलह हजार लोको में एक मायामय शान्त्र की की रचना करो जो कि श्रुति स्मृति में विद्ध और वर्णनम की मर्यादा से रहित हो ॥१०॥वह शास्त्र अपभ्रंशभाषामे हो पोर उसमें कर्मवाद का उल्लेख हो, गेले शास्त्र को तुम प्रयत्न ने रचो. पागे उसका विस्तार होगा ||११|| मैं उसके निर्माण की तुनको मामय देता हूँ तथा अनेक प्रकार को माया भो तुम्हारे आधीन होगो ॥१॥ इस प्रकार हरि परमात्मा के इन वचनों को सुन कर प्रगान पूर्वक वह मायावी जनार्दन ने कहने लगा ।।१३।। हे देव ! जो कर मुझे करना हो, उसे शीन कहिये. नापको प्राा मेमय कार्य शीन नित होगा ॥१क्षा सनकुमारजी बोले कि यह मुन भगवान ने उनी . 547 - - - -
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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