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________________ पुराण और जैन धर्म धर्म प्रन्य हैं उनमें भूल या त्रुटि का ख्याल करना पाप है, इस प्रकार के पाप से सदा वचते रहना ही धर्मात्मा बनने का. सुन्दर उपाय है इसलिये जैन धर्म के प्रवर्तक चाहे ऋषभदेव ही हों, वह-जैन धर्म-चाहे प्राचीन हो और उसके सिद्धान्त भी भले उत्तम हों तथापि उसके विषय में भागवत में जो कुछ लिखा गया है वही सत्य और सर्वथा मानने योग्य प्रतीत होता है इसलिये उसी पर विश्वास रखना धार्मिक सज्जनों को. उचित है। सज्जनो ! जिन धर्मात्माओके इस प्रकार के विचार है उनके धर्म विश्वास की तुलनानीचे लिखे एक उदाहरण से बहुत अच्छी तरह हो सकती है । "एक भद्र पुरुप को किसी कार्य के निमित्त कुछ समय के लिये विदेश जाना पड़ा, घर में उसकी एकमात्र खी थी वह जितनी गञ्ज भाषिणी थी उतनी ही व्यभिचार प्रिया भीथी इसलिये पति के विदेश जान के थोड़े ही दिन बाद उसने किसी दूसरे सजन से अपना नाता जोड़ लिया, परन्तु अपने निज पति से सदा के लिये छुटकारा पाने की उसे बहुत फिकर रहती थी। एक दिन उसने अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये एक बड़ा ही सुन्दर उपाय हूँ निकाला । उसके दूसरे ही दिन वह अपने उपपति को साथ लेकर कहां के न्याय मन्दिर कचहरी मे पहुची और बड़ी नम्रतापूर्वक न्यायाधीश-जज से कहने लगी कि न्यायावतार ! मुझ हत भागिनी का प्राणधन-पति विदेश में जाकर कुछ दिन हुग इन संनार से सदा के लिये चल बसा ? मेरा एक मात्र सर्वत्व वही था, अब मैं सर्वथा असहाय हूं लाचार होकर अब मुझे भरने धर्म पर प्रहार
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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