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________________ 44 व अनिबद (मुक्तक) पर विशेष रूप से विचार किया है। तत्पश्चात् ध्वनि के आधार पर मान्य काव्य-भेद, ध्वनि-भेद, काव्य-हेतु व काव्य-प्रयोजन पर क्रमश: प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्याय "जैनाचार्यों की दृष्टि में रस - स्वरूप विवेचन * मैं पूर्वकथित छः प्रमुख जैनाचार्यों की रस विषयक मान्यताओं पर विचार किया गया है। इसमें सर्वप्रथम रस का महत्त्व व उसके स्वरूप पर प्रकाश डाला है। आ. रामचन्द्र - गुपचन्द्र की रस विषयक इस मान्यता की कि " रस सुख-दुःखात्मक है" की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। इसी क्रम में रसों के सभी भेदों पर पृथक-पृथक विचार किया है तथा अनुयोगद्वारसूत्रकार द्वारा भयानक रस के स्थान पर मान्य व्रीडनक रस का विवेचन किया है। तत्पश्चात विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव, सात्त्विकभाव, स्थायिभाव व रसाभास व भावाभास पर विचार किया है। चतुर्थ अध्याय "दोष - विवेचन" में दोष का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए जैनाचार्यों द्वारा मान्य पददोष, पदांशदोष, वाक्यदोष, उभयदोष, अर्थटोष व रसदोषों पर पृथक-पृथक विचार किया गया है। तत्पश्चात् दोष परिहार का भी उल्लेख है । पंचम अध्याय "गुण-विवेचन व जैनाचार्य " में गुण सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए गुप के स्वरूप व भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा मान्य
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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