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लक्षप तथा साहित्य उस युग की महा विद्यायें थी तथा इस महत्त्रयी का पाण्डित्य राजदरबार तथा जनसमाज में अग्रगण्य होने के लिये आवश्यक
था। अत : जैनाचार्यों ने अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने व प्रतिभा को कसौटी पर कसने हेतु संस्कृत भाषा को भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं द्वारा पल्लवित व पुष्पित किया जिनमें काव्यशास्त्र भी एक है।
प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध को सप्त अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय, "संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख जैनाचार्य व्यक्तित्व व कृतित्व में छ: जैनाचार्यो'- आचार्य वाग्भट प्रथम, हेमचन्द, रामचन्द्रगुपचन्द्र, नरेन्द्रप्रभसरि, वाग्भट द्वितीय व भावदेवतरि का ऐतिहासिक क्रम से परिचय है, जिनमें उनके माता-पिता, गुरू, कुल - गोत्र व समय आदि पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। साथ ही उनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए उनके अलंकारशास्त्र विषयक ग्रन्थों का सामान्य परिचय दिया गया है।
द्वितीय अध्याय “काव्य-स्वरूप, हेतु व प्रयोजन" में सर्वप्रथम काव्यस्वरूप पर विचार करते हुए विभिन्न आधारों पर काव्य के भेद किये गये हैं। काव्य-भेदों के अन्तर्गत महाकाव्य के स्वरूप व उसके वर्षनीय विषयों का उल्लेख है। इसी प्रसंग में काव्य के अन्य भेद-आख्यायिका, कथा, चम्प, ":