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________________ (८) हरा थी। मध्यप्रांतका सबसे बड़ा राजवंश कलचूरि वंश था जिसका प्राबल्य आठवीं नौवीं शताब्दिमें बहुत बढ़ा । शिलालेखोंमें इस वंशकी उत्पत्ति उपर्युक्त सहस्रार्जुन व कार्तवीर्यसे बतलाई गई है । एक समय कलचूरि साम्राज्य बंगालसे गुजरात और बनारससे कर्नाटक तक फैल गया था, पर यह साम्राज्य बहुत समयतक स्थायी नहीं रह सका । क्रमशः इस वंशकी दो शाखायें होगई । एक शाखाकी राजधानी जवलपूरके पास त्रिपुरी थी जिसे चेदि भी कहते हैं और दूसरीकी विलासपुर जिलेके रतनपुरमें | यद्यपि कलचूरि नरेशोंका राज्य बहुत समय तक बना रहा, पर तीन चार शताब्दियोंके पश्चात् उसका जोर बहुत घट गया। कलचूरी नरेश प्रारम्भमें जैनधर्मके पोपक थे । पांचवीं छटवीं शताब्दिके अनेक पाण्ड्य और पल्लव शिलालेखोंमें उल्लेख है कि 'कलभ्र' लोगोंने तामिल देशपर चढ़ाई की और चोल, चेर, 'और पांड्य राजाओंको परास्तकर अपना राज्य जमाया । प्रोफेसर रामस्वामी अय्यन्गारने वेल्विकुडिके ताम्रपत्र तथा तामिल भाषाके 'परियपुराणम्' 'परसे 'सिद्ध किया है कि ये कलभ्रवंशी प्रतापी राजा 'जैनधर्मके पक्के अनुयायी थे ( Studies in south Indian Jainizm P. 53-56) इनके तांमिल देशमें पहुंचनेसे जैनधर्मकी वहां बड़ी उन्नति हुई । इनके एक राजाका नाम या उपनाम "कल्वरकल्वम् ' था । इन नरेशोंके वंशज अब ‘भी विद्यमान हैं और वे किलार कहलाते हैं। श्रीयुक्त 'अय्यन्गारजीका अनुमान है कि ये किलभ्र' ऑर्य नहीं द्राविण जातिके होंगे, पर अधिक सम्भव यह प्रतीत होता है कि ये
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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