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________________ Newtonanandameremovemarameramaneletes Re पवितकन जो वह उनके पास आये। ऐम ही सोच विचारकरहरिकेशने निश्रय कर लिया कि अब वह लौटकर अपने गांव नहीं जावंगा। वह बन रहेगा, वनफलोको स्वारगा और पूर्ण स्वतंत्र होकर विचरण करेगा। उसके समान और कौन सुखी होगा ? हरिवेशबलने किया भी ऐसा ही। वह वनमें सिंहके समान स्वतंत्र घूमता, फिरता और मो कुछ फल मादि मिलते उनको खाता। एक दिन घूमते२ वह एक आमवाटिकाके पास जा पहुंचा। वहांफर एक जैन मुनि बैठे हुये थे। हरिकेशके भयानक रूपको देखकर वह मुस्करा दिये । चाण्डाकका भी साहस बढ़ा, वह उनके पास चला गया। बहुत दिनोंसे उसने कोई मनुष्य देखा भी तो नहीं था। उन मुनिको देखकर उनके पास बैठनेको उसका भी कर आया। सुनिने उसे धर्मका महत्व समझाना आरम्म किया। हरिवेश एकदम चौंक पड़ा और बोला-" महाराज ! मैं तो चाण्डाल ई, मुझे तो जोग छूते भी नहीं, धर्म मैं कैसे पालुंगा!" मुनि बोले-"चाण्डाल हो तो क्या हुआ ? हो तो मनुष्य न? दुनियां तुम्हें नहीं छती, मत छूमो! किन्तु धर्मका ठेका तो किसीने नहीं ले रखा है। तुम चाहो तो धर्म पाल सकते हो।" हरिकेश अचरजमें पड़ गया और अपनी असमर्थताको व्यक्त करने के लिए फिर कहने लगा-"प्रभो ! मैं तो देव-दर्शन भी नहीं कर सक्ता!" मुनि हंस पड़े और बोले-"भूलते हो, चाण्डालपुत्र ! तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। तुम चाहते हो देवके वर्सन करना तो सपने
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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