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________________ wwwmummymposeumymayawamyawwamrouamanamamyahoomimmewom rammam [५] , चाण्डाल-साधु हरिकेश ! वसन्त अपनी पूरी बहारपर था। उसने चहुंओर सरस.म.दकला । फैला दी थी। वनलतायें और वृक्ष तो प्रणय लिका आनन्द बद्ध ही रहे थे, किन्तु रसभरे मनुष्य भी कामके पंचशरोंसे विधे प्रेम मधुको चखने के लिये मतवाले होहे थे। युवक और युवतिया टोली टोली बनाकर वनविहारको जाते थे और वान्तोत्सव मना कर आनन्दविमोर होते थे। कहीं वीणाकी मधुर झकार और प्रेसियके सुरील कंदरवमें भी जकर प्रेमीजन संगीतका स्वर्गीय आनन्द लूरते थे। कहीं पर प्रमोन्मत्त दम्पति जलक्रीड़ा द्वरा एक दुसरेके दिलोंमें गुदगुदी उत्पन्न करते थे। वमन्तने सचमुच उनमें नया जोश और नई बवानी लादी थी। वे उमका रस लुटने में बेसुध थे । प्राचीन भारतका यही तो राष्ट्रीय त्योहार था। इस त्योहारको भारतीयजन बड़े उल्लास और कौतुकमे मनाने थे। मृत गङ्गाके किनारे कुछ झोपड़िया थीं। उनके पास ही हड्डि. योका ढेर था और गढेमें लोहू और १५ पहा पड रहा था, जिनपर चौल करवे महान रहन थे। उन झोपडयामे ना डाल लोग रहते थे। अपने हिसार्मक कारण वे मनुष्य ममान द्वारा निरस्कृत अछूत थे। कोई उन चाण्डालों को अपने पास होकर निकलने नहीं देता था। xउत्तरायगन सूत्र ( श्वेन म प्र) माधारसे ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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